प्रेम भी अपरिपक्व होने लगा हैं

स्त्री की देह तालाब-सी है, बिल्कुल ठहरी हुई सी

उसमे नदी के मानिंद वेग और चंचलता कुछ नहीं

फिर भी पुरुष उस तालाब में ही प्रेम खोजता है,

सत्य है क़ि खोज की भाषा भी सिमट-सी गई हैं

वेग का आवरण भी कभी कुंठा के आलोक में

तो कभी पाश्चात्य के स्वर में मुखर होने लगा है

केवल तनपीपासा ही स्वार्थ का धरातल बन गई है

आख़िर सब कुछ गेंहू की बालीयों की तरह

समय की परिपक्वता के सहारे बदलने लगा हैं

तालाब में जैसे एक ही तरह की भाषा होती है,

रोज-रोज एक ही तरह का व्याकरण होता हैं

स्वर भी वहाँ हर रोज एक ही होता हैं,

आक्रोश भी कभी बदलाव नही दर्शाता हैं

वही कुछ प्रेम के नये प्रतिमानो के साथ भी

होने लगा हैं अब इस काल के दर्पण में

स्त्री की देह पर ही सीमटता व्यापक प्रेम

समझ की सभ्यता को मुँह चिड़ाने लगा हैं

जिसका आरंभ हृदय के स्पंदन से हो कर

भीगी पलकों के प्रतीकों पर ठहरता था,

भैंसों के तबेले का बिखरा हुआ आवरण

नैर्सन्गिक खोज में डूबा हुआ रहने लगा हैं

शारीरिक क्षुधा तक ही रुकता हुआ प्रतीक

मानों पतझड़ की गर्म हवा-सा होने लगा हैं

आख़िर दुनिया की सबसे शक्तिशाली कोपल का

व्यावहारिक व्याकरण विस्तार क्यूँ थमने लगा हैं

और वहीं तालाब जो हरी निरावन से पटा हुआ

दैहिक प्यास के बुझे दीपक-सा होने लगा हैं

किस्तों में जैसे महाजन का सूद आदमी को काटता हैं,

वही हाल इस समय दैहिक मौलिकता का होने लगा हैं

जैसे कोई पक्षी भूमंडल को स्वर अर्पण करता हैं

वैसे ही निश्चल प्रेम के स्वरूप का बखान भी होता है

आज पाश के प्रताप में भ्रमर के गुंजन को कचोटता

आधे-अधूरे लिबास में प्रेम भी अपरिपक्व होने लगा हैं