धर्मांधों का मिथक को चकनाचूर करती भारत मां की बेटियां

                  रियो ओलंपिक खेल समाप्त तो हो गए परंतु अपने पीछे यह खेल आयोजन खासतौर पर भारत के लिए एक ऐसा इतिहास रच गये जिसे देशवासी कभी भुला नहीं सकेंगे। वैसे ओलंपिक के इतिहास में 36 वर्षों में भारत को अब तक केवल एक ही स्वर्ण पदक मिल सका है। एक बार फिर भारत के खाते में कोई भी स्वर्ण पदक नहीं आया। बावजूद इसके कि भारत ने रियो में विभिन्न खेल स्पर्धाओं में भाग लेने हेतु 119 पुरुष व महिला खिलाड़ी भेजे थे। इनमें यदि पीवी सिंधु ने बैडमिंटन में रजत तथा साक्षी मलिक ने फ्री स्टाईल कुश्ती में कांस्य पदक न जीता होता तो शायद भारत को इस बार ऐतिहासिक निराशा हाथ लगती। गौरतलब है कि इसके पूर्व लंदन में आयोजित हुए ओलंपिक खेलों में भारत ने 6 मेडल हासिल किए थे। परंतु इस बार रियो में केवल दो पदकों पर ही संतोष करना पड़ा। और वह भी हमारे देश की बेटियों ने भारत की लाज रखने का काम किया।

बक़ौल क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग के-‘पूरा देश इस बात का साक्षी है कि जब कोई मुश्किल होती है तो इस देश की लड़कियां ही मालिक हैं। सहवाग ने यह ट्वीट साक्षी मलिक द्वारा कुश्ती में पहला पदक हासिल करने के बाद किया था। साक्षी मलिक के संदर्भ में एक बात और उल्लेखनीय है कि साक्षी मलिक उस हरियाणा राज्य का प्रतिनिधित्व करती है जहां महिलाओं के विषय में खासतौर पर उनके स्वेच्छा से विवाह करने को लेकर या प्रेम प्रसंग के चलते यहां की खाप पंचायतों द्वारा तरह-तरह के मानवाधिकार विरोधी फैसले सुनाए जाते रहते हैं। इतना ही नहीं बल्कि कई कई युवक-युवतियों को तो सज़ा-ए-मौत भी दी जा चुकी है। निश्चित रूप से उसी हरियाणा की एक बेटी ने आज केवल अपने राज्य की ही  नहीं बल्कि पूरे देश की लाज बचाने में अपना अहम किरदार अदा किया है।

                हमारे देश में महिलाओं के विषय में पुरुष प्रधान समाज की क्या सोच है, हमारे देश में प्रचलित धर्मों के विभिन्न धर्मग्रंथों में महिलाओं को क्या दर्जा दिया गया,हमारे भारत में विभिन्न धर्मों के ठेकेदार,अनेक धर्मगुरु यहां तक कि कई राजनेता महिलाओं के विषय में क्या धारणा रखते यह बात भी किसी से छुपी नहीं है। ठीक इसके विपरीत इसी देश में महिलाओं ने अब तक क्या कुछ कर दिखाया तथा उनका क्या मर्तबा है इसे भी कोई नकार नहीं सकता। धर्म क्षेत्र की यदि हम बात करें तो हिंदू धर्म की सात देवियों से लेकर सीताजी तक ने हिंदू धर्म की पौराणिक कथाओं में अपना लोहा मनवाया। यदि हम युद्ध क्षेत्र की बात करें अथवा स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान को देखें तो हमें कभी महारानी लक्ष्मी बाई दिखाई देती हैं तो कहीं रजि़या सुल्तान व बेगम हज़रत महल व चांद बीबी के नाम नज़र आते हैं । त्याग के क्षेत्र में कभी सावित्री दिखाई देती है तो समाज सेवा व समाज सुधार के क्षेत्र में दलित महिला सावित्री बाई फुले का नाम सुनाई देता है।

अंग्रेज़ों के विरुद्ध आज़ाद हिंद $फैाज में सीना ताने कभी लक्ष्मी सहगल खड़ी नज़र आती हैं तो कभी सरोजिनी नायडू दिखाई देती हैं और स्वतंत्र भारत में कभी देश व दुनिया को अपनी कुशल राजनीति का लोहा मनवाती इंदिरा गांधी दिखाई देती हैं। जब हम अंतरिक्ष की बात करते हैं तो भी हमें अपने देश की केवल दो ही महिलाओं के नाम सुनाई देते हैं। एक कल्पना चावला और दूसरी सुनीता विलियम। इन सब सच्चाईयों के बावजूद आज भी हमारे देश में औरतों को न केवल तिरस्कार की नज़रों से देखा जाता है बल्कि उसे पुरुष के अधीन रहने वाली एक भोग्या वस्तु मात्र के दर्जे का ही समझा जाता है।

                सवाल यह है कि आखिर हमारे समाज में ऐसी धारणा क्योंकर स्थापित हो चुकी है। तुलसीदास द्वारा रचित हिंदू धर्म के सर्वमान्य ग्रंथ रामचरित मानस में उल्लिखित श्लोक-‘ढोल,गंवार,शूद्र,पशु नारी-सकल ताडऩा के अधिकारी। यह श्लोक इस बात का प्रमाण है कि सैकड़ों वर्षों से धर्मग्रंथों में भी महिलाओं को पशु व ढोल के समकक्ष रखने की कोशिश की जाती रही है। और इससे भी बड़े दु:ख  की बात यह है कि यह श्‍लोक उस महाकवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचा गया जिसने स्वयं रामचरित मानस लिखकर भगवान राम के प्रति अपनी गहन आस्था व आराधना का प्रदर्शन अपनी पत्नी के एक व्यंग्य से प्रेरणा पाने के बाद ही किया था। आश्चर्य तो यह है कि जिस रामचरित मानस में तुलसीदास ने सीता माता का इतना बखान व गुणगान किया हो उसी रामचरित मानस में इस विवादित श्‍लोक की रचना का तात्पर्य ही क्या था ? सिवाए इसके कि यह शताब्दियों से चली आ रही उस पुरुष मानसिकता का परिचायक था जोकि महिलाओं के विरुद्ध पुरुषों के मन में युगों-युगों से पलती आ रही है।

 द्रोपदी का चीर हरण तथा पांडवों द्वारा पांच भाईयों के बीच एक पत्नी का होना भी इसी बात की दलील है। इसी प्रकार इस्लाम धर्म में भी औरत को मर्द की तुलना में कमतर समझा गया है। हालांकि इस्लाम धर्म के इतिहास में भी $फातिमा,ख़दीजा तथा ज़ैनब जैसे कई ऐसे चरित्र हुए हैं जिन्होंने अपनी जीवन शैली व कारगुज़ारियों से यह साबित किया है कि औरत भी किसी मर्द से कम हरगिज़ नहीं है। इसके बावजूद इस्लामी कानून में दो औरतों की गवाही के बराबर एक मर्द की गवाही को स्वीकार्यता प्रदान की गई है। मुस्लिम औरतों का पर्दे अथवा हिजाब में रहने जैसा विषय तो सर्वविदित है ही। आज भी कई मुस्लिम धर्मगुरुओं को यही कहते सुना जाता है कि औरत को सिर्फ घर में रहना चाहिए। उसका काम बच्चे पैदा करना व उनकी तालीम व तरबीयत करना मात्र है।  यह परंपरा मुस्लिम समुदाय में इतनी गहराई तक अपना असर दिखा चुकी है कि आज भी अधिकांश मुस्लिम महिलाएं पढऩे-लिखने की ज़रूरत महसूस नहीं करतीं और पर्दे में रहकर स्वयं को घर की चारदीवारी में कैद रखना ही बेहतर समझती हैं। आज यह उनकी जीवनशैली का एक हिस्सा बन चुका है।

 जबकि दूसरी ओर भारत व पाकिस्तान सहित कई मुस्लिम देशों में आधुनिक व उदारवादी परिवारों से संबंध रखने वाली मुस्लिम महिलाओं द्वारा बड़े मालवाहक जहाज़ से लेकर लड़ाकू विमान तक उड़ाए जा रहे हैं। हमारे देश की सबसे प्रतिष्ठित राजकीय सेवाओं से संबंधित संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में मुस्लिम महिलाओं के सफल होने के समाचार सुनाई देने लगे हैं। यहां तक कि कई मुस्लिम महिलाएं देश के विभिन्न न्यायालयों में न्यायधीश जैसे महत्वपूर्ण पदों पर भी तैनात हैं।

                पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी के संरक्षक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि जो औरत अपने घर का चूल्हा बर्तन न करती हो उसका पति उसे तला$क दे सकता है। भागवत के इस बयान से सा$फ ज़ाहिर है कि वे महिलाओं को भारत के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर का कोई पदक लाते हुए देखकर खुश नहीं हैं। क्योंकि उनके लिए तो किसी भी महिला के अंदर चूल्हा चौका करने की योग्यता होना ज़्यादा जरूरी है। इससे पहले भी भागवत को महिलाओं द्वारा उनके चरण धुलवाए जाने के चित्र प्रकाशित हो चुके हैं।

 वे हिंदू समुदाय में अधिक बच्चे पैदा करने की वकालत कर यह साबित करना चाहते हैं कि वे भी औरतों को सिर्फ बच्चे पैदा करने व चूल्हा-चौका करने के योग्य ही समझते हैं। संघ को तो वैसे भी महिला विरोधी मानसिकता रखने वाला संगठन इसलिए कहा जाना चाहिए क्योंकि इसके प्रमुख से लेकर किसी भी दूसरे बड़े पद पर आज तक किसी महिला को नहीं बिठाया गया। इनके आयोजनों में महिलाओं का काम तो सिर्फ सज-धज कर अपने सिरों पर कलश रखकर उनकी शोभायात्राओं को आकर्षक बनाना तथा  उनके स्वागत समारोहों की रौनक बनना रह गया है।

                परंतु एक बार फिर पीवी सिंधु,साक्षी मलिक तथा दीपा करमरकर जैसी भारतीय लड़कियों ने धर्मांध लोगों के तथा महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रही कुंठा रखने वाले रूढ़ीवादियों के उस मिथक को चकनाचूर करके रख दिया है। जिसके तहत यह लोग महिलाओं को कमज़ोर व कमतर समझते आए हैं। इन लड़कियों की सफलता के बाद पूरे देश में महिलाओं के पक्ष में तरह-तरह की बातें उठना स्वाभाविक था। खासतौर पर सोशल मीडिया में भारत की नाक बचाने वाली इन बेटियों के बारे में तरह-तरह के विचार व्यक्त किए गए।

 देश में समय-समय पर महिलाओं के साथ होने वाले यौन उत्पीडऩ व बलात्कार की ओर इशारा करते हुए ऐसे ही किसी एक व्यक्ति ने लिखा कि-‘एक सौ पच्चीस करोड़ लोग समय आने पर एक महिला की इज़्ज़त नहीं बचा सकते जबकि दो महिलाओं ने एक सौ पच्चीस करोड़ लोगों की इज़्ज़त बचा ली। यदि बेटियां शिक्षित होंगी,प्रशिक्षित होंगी, उन्हें सांस लेने के लिए खुला वातावरण मिलेगा, परिवार,समाज व सरकार उनकी तरक्की  व विकास में बेटियों की हौसला अफज़ाई करेगा तो भारत मां की यह बेटियां भविष्य में भी महिलाओं के प्रति बन चुके पुरुषों के इस नकारात्मक मिथक को चकनाचूर करती रहेंगी।

One thought on “    धर्मांधों का मिथक को चकनाचूर करती भारत मां की बेटियां

  1. संलग्न लेख विषय की गम्भीरता को लेकर लिखा गया है किंतु उन्होंने भारतीय इतिहास और हमारी पुरातन संस्कृति में महिलाओं की
    पुरुषों से बराबरी की बात को विदेशी इतिहासकारों के नज़रिए से परखने की कोशिश की है । संभवत विश्व में भारतवर्ष ही एकमात्र देश है जहाँ नारी की तुलना पुरुषों से नहीं की जाती, वरना उसे उसे पुरुषों से बेहतर माना जाता है। हिंदू संस्कृति में महिला के प्रति आदर का भाव प्रारम्भ से ही रहा है । कालांतर में विदेशी आक्रामकों के क्रूर प्रहार से हमारी जीवनशैली में ज़मीन आसमान का अंतर आया है। महिला को सुरक्षा देने और उनकी इज़्ज़त बचाने के लिए हमारे पूर्वजों ने कुछ नियम बनाए, जो आज बेमानी हैं । उन्हें अपनाने की आवश्यकता नहीं है, किंतु अब भी कुछ असामाजिक तत्वों की गतिविधियों के कारण महिलाओं के लिए कुछ बंधन हैं जिनसे मुक्त होना उनकी इच्छा पर निर्भर करता है । इसके लिए कोई बंधन नहीं है ।

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