तर्कहीन राजनीति का परिचय देते पक्ष और विपक्ष

प्रसंग-संसद में हंगामा

     राजनीति के समर में विकास का रथ तभी विजय का आचमन करता है,जब कृष्ण जैसा सारथी हो,और सारथी की महत्ता को सिध्द करने का पर्याय भी तभी है,जब रथ पर धनुर्धर अर्जुन सवार हो। वर्तमान राजनीति का रुख काँग्रेस के हवाले से देखा जाए तो, तानाशाही वाला हो सकता है, किन्तु कमजोर सारथी रूपी राहुल न तो खुद अर्जुन बन पाए ,न ही संगठन को अर्जुन बनने दे रहे हैं।

     विरोधाभास के गलियारे से शुरु हुई बहस 'भूचाल' या 'भूकंप' जैसे  'बच्चा बयान' पर जाकर थमेगी, समझ से परे है। बहरहाल, कांग्रेसी युवराज से पार्टी को उम्मीदें तो बड़ी हैं,पर लम्बे समय से वह दिवास्वप्न ही साबित हो रही हैं। राष्ट्र के हृदयस्थल संसद से चीखने वाले शब्द भी यही इशारा कर रहे हैं। पक्ष और विपक्ष दोनों की पटकथा का सार चाहे कुछ भी हो,पर भूमिका संसद के प्रति गरिमाहीनता का बोध कराती है,जो देशवासियों का मनोबल गिराने में नाटकीय क़दम है।

        संसद में बोलने और नहीं बोलने के नुकसान एवं फायदे काँग्रेस के युवराज राहुल गाँधी को तो समझ आए या नहीं,पर संगठन के पुराने सिपहसालारों को अंतिम दिन यह बात समझ में आ गई है।  इतने पुराने संगठन को इससे सिर्फ और सिर्फ घाटा ही हुआ है।आश्चर्य होता है कि,भारत तो ठीक,विदेश में शिक्षित काँग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी यह कहते हैं कि 'मुझे संसद में बोलने नहीं दिया जा रहा है।' इसे सम्भवतः अनुभवहीनता और गहन सोच की कमी ही मानना पड़ेगी कि,किसी प्रमुख विपक्षी दल के इतने चर्चित चेहरे की जुबान से ये बात निकली कैसे ?अरे,क्या सत्ता के किसी नेता ने इनकी जुबान पकड़ ली थी,जो इन्हें बाहर आकर ऐसा बताना पड़ा। बड़ा अचरज होता है कि, जिसे सोनिया गाँधी और पूरी काँग्रेस अपना खिवय्या माने बैठी है,वो सेनापति ही ये कहे कि 'मेरे पास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के निजी भ्रष्टाचार के खिलाफ और नोटबन्दी में हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ ठोस जानकारी है,और मैं इसे लोकसभा में रखना चाहता हूं,लेकिन मुझे बोलने नहीं दिया जा रहा है।' दरअसल लगता तो ऐसा है कि,राहुल बाबा ने खुद को संसद से बचाया है,पर इससे जनता में गलत संदेश गया है।राहुल गाँधी और कई कांग्रेसी ऐसा चाहते थे कि,न बोलने देने का आरोप सत्ता पर लगाकर आमजन का भरोसा हासिल किया जाए,पर ये दाँव उलटा पड़ गया है। इस राजनीति से सर्वाधिक फायदा सत्तारुढ़ भाजपा को ही मिला है। हंगामा मचाकर बहस के बाद मतदान की मांग से कांग्रेस को क्या मिला,केवल घाटा…। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि,काँग्रेस के युवराज को पूरी उम्मीद थी कि नोटबन्दी से उत्पन्न जनसमस्याओं को लेकर संसद ठप कराने से उसे मीडिया का ध्यान और जनता का समर्थन मिलेगा,पर ऐसा हो नहीं सका। इसकी वजह यह भी है कि, नोटबंदी के शुरुआती समय में आमजन कतार में रहे,उनका समय बर्बाद हुआ,लेकिन मोदी के खिलाफ कांग्रेस ताकतवर  जनआंदोलन खड़ा करने में विपक्ष के नाते विफल रही। कांग्रेस के साथ ही टीएमसी, बीएसपी और शिवसेना को भी कोई सफलता नहीं मिली। हाँ,तब कांग्रेस ने कतार में खड़ी जनता को सरकार के खिलाफ भड़काने की कोशिश ज़रूर की,किन्तु निचले स्तर तक इस पर नेताओं ने सिर्फ आंदोलन का दिखावा किया। इससे नतीजा यह निकला कि,काँग्रेस को जनता के ही सुर से सुर मिलाकर,यानि नोटबंदी को अघोषित तौर पर जन समर्थन में जायज मानना पड़ा। राजनीतिक समझ देखिए कि राहुल बाबा के इस 'बच्चा बयान'  को समझकर पीएम ने सभाओं में मजमा लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ये अपने हिसाब से   नोटबन्दी पर बोलकर कांग्रेस के शहजादे को कोसते रहे। इतना हो चुकने के बाद मतलब संसद के  अंतिम बचे समय में कांग्रेसियों के पल्ले यह कहानी पड़ी कि,हंगामा करने से फायदा नहीं,घाटा हो गया है,इसलिए अपने फायदे की खातिर वह हंगामा रोकने पर सहमत हुई,पर तब तक देर हो चुकी थी। अब संसद चलने से काँग्रेस को उसका लाभ नहीं मिले,इस पर अंतिम मुहर भाजपा ने लगाई। काँग्रेस की देर का सत्तापक्ष यानि भाजपा ने पूरा लाभ लिया। अब अपने लाभ के लिए इन्होंने संसद नहीं चलने दी। हंगामेदार संसद में ही अपना फायदा देखकर सबने काँग्रेस को कोसा,जिससे आमजन ने भी विपक्ष को ही गलती में माना क्योंकि जनता के अन्य मुद्दों पर तो कोई बात हो ही नहीं सकी।अंतिम दिन भी विपक्ष के रुप में कांग्रेस मोदी सरकार को घेरने में विफल रही,और राष्ट्रपति से मिलने जाने में भी बिखराव हो गया।संसद में पहले कम बोलकर तथा अंतिम दिन पीएम ने इंदिरा गाँधी और 1971 में ही नोटबंदी कर देने की जो सलाह इतिहास के पन्नों से निकाली है,उससे काँग्रेस को आगे चलकर और भी घाटा होना पक्का है।

     तब नोटबंदी करने की अपेक्षा 'लेडी आयरन' द्वारा यह कहना कि-'क्या काँग्रेस को चुनाव नहीं लड़ना है,' से पीएम नरेन्द्र मोदी ने आमजन को यकीन दिलाया है कि,कालेधन को ख़त्म करने के लिए काँग्रेस ने कोई कड़ा क़दम नहीं उठाया है। इधर पीएम नरेन्द्र मोदी की पटकथा भी कम रोचक नहीं है..इन पर भी गजब है कि बोले-'मुझे संसद में नहीं बोलने दिया जा रहा, इसलिए मैं अपनी बात रखने के लिए आमसभाओं का सहारा ले रहा हूं',जबकि नरेन्द्र मोदी संसद में बोलने और नही  बोलने के फायदे अच्छे तरह से जानते हैं। राहुल गांधी संसद में अपने विशेषाधिकार का फायदा उठाकर मोदी पर कोई बड़ा आरोप लगाना चाहते थे,ये सिर्फ हवाई किला था,क्योंकि सबूत ही नहीं है। अगर सबूत होता,तो यह सार्वजनिक तौर पर आरोपों का खुलासा करते,जैसा कि नहीं हुआ। और इसके बाद भी इन्होंने खुलासा तो किया ही नहीं न।इससे तो संगठन के बड़े नेता भी चकित हैं,कि इनको कौन-सा सबूत और कहाँ से मिल गया।यह मानने में भी कोई बुराई  नहीं है कि,नियमों एवं संवैधानिक मुश्किलों से बचने के लिए ही पीएम नरेन्द्र मोदी ने नोटबन्दी पर विपक्ष के अनेक प्रश्नों का सामना नहीं किया। ज़रा सोचिए कि,क्या यह संभव है कि किसी राष्ट्र का प्रधानमंत्री उसी देश की संसद में बोलना चाहे और उसे जबरन रोक दिया जाए? यदि ऐसा होता तो, संसद के शीतकालीन सत्र के अंतिम दिन पीएम मोदी कैसे बोल लिए…?

     दरअसल,दोनों दलों के प्रमुख ने ही जो सोचा था,उस पर भाजपा ने पूरा काम किया,लेकिन कांग्रेस हवाबाजी में ही रह गई। अलबत्ता भाजपा भी कोई महत्वपूर्ण झंडे गाड़ने में सफल नहीं हो सकी है। या तो यह अपने राजनीतिक चरित्र से बेईमानी है, या व्यक्तिवाद के हावी होने से पतन की चेष्टा।इसी बात पर कुछ पंक्तियाँ याद आती है –

चले थे राह के कंकर हटाने 'अवि' ,

समय –संग खुद कंकर बने जा रहे लोग…

      अब देखना यह है कि,राजनीतिक विद्वानों की विद्वता का यह ऊँट किस करवट बैठकर बुद्धिहीन राजनीति से राष्ट्र को बचाता है।