डेथ ड्रिल’ को मात देकर इंदिरा को मात दी थी जेपी ने

‘देवसहायम, मैं एक बार फिर असफल हो गया ।’ जनता सरकार के पतन के बाद 1979 के मध्य में जब पटना के कदम कुआं में देवसहायम जेपी से मिले तो यही एक लाइन जेपी के मुंह से निकली और आँखों से आँसू टपक पड़े। इन आँसुओं के चंद महीनों बाद ही अक्तूबर में यह धुंरधर क्रांतिकारी, जो आजादी की लडाई में महात्मा गांधी की सेना का पैदल सिपाही रह चुका था और जिसने भारत को दूसरी आजादी दिलाने के लिये अकेले ही लोहा लिया था, उसने दुखी मन से दुनिया छोड़ दी। लेकिन जेपी के आँसुओं के पीछे सिर्फ दुख नहीं बल्कि हर क्षण संघर्ष करने का वह माद्दा था, जिसे इमरजेन्सी के दौर में जेपी ने जीया भी और खुद को मरने से बचाये भी रखा। क्योंकि उन्हें भरोसा था कि एक दिन ऐसा जरुर आयेगा जब वह अस्पताल बने जेल से बाहर निकल कर इंदिरा की सत्ता को पराजित करेगें और लोकतंत्र का नया राग देश को देंगे।

इमरजेन्सी के दौर में जेपी को पल पल मारने की इंदिरा की साजिश और पल पल जीने की जेपी की चाहत को सबसे नजदीक से और किसी ने नहीं उन्हीं देवसहायम ने देखा और भोगा, जिनके सामने जनता सरकार के पतन के बाद जेपी टूटे और बोले -“देवसहायम , मै एक बार फिर असफल हो गया।”देवसहायम का पूरा नाम एमजी देवसहायम है और यह कोई दूसरे नहीं बल्कि इमरजेन्सी के दौरान चंडीगढ़ के जिला मजिस्ट्रेट थे। और इमरजेन्सी के एलान के साथ ही जेपी को दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान से उठाकर पुलिस और कहीं नहीं चंडीगढ़ ही ले गई थी। जहां जेपी को लाया तो सिर्फ 15 दिनो के लिये गया था लेकिन उन्हें वहां 140 दिन रखा गया। चंडीगढ़ के पीजीआई के भूतल में जेपी के लिये बनाये गये वार्ड को ही जेल में तब्दील कर जिन परिस्थितियों में हर दिन जेपी को रहना पड़ा, उसके सबसे करीबी राजदार और कोई नहीं चंडीगढ के जिला मजिस्ट्रेट देवसहायम ही रहे। क्योंकि देवसहायम जिला मजिस्ट्रेट होने के नाते ”जेल में जेपी के संरक्षक थे।” और बतौर संरक्षक देवसहायम ने 26 जून 1975 से 15 नवंबर 1975 तक के दौरान जेपी के संघर्ष को भी देखा और इमरजेन्सी के कुचक्र को भी समझा और उसी दौर को दस्तावेज के तौर कागज में उकेर कर अद्भुत किताब “जयप्रकाश की आखिरी जेल ” लिखी है। “जयप्रकाश की आखिरी जेल ” कई मायनो में जेपी पर लिखी अनेक किताबो से ना सिर्फ अलग है बल्कि जेपी के जहन में इमरजेन्सी के दौर में क्या चल रहा था और इंदिरा गांधी की सत्ता जेपी को खत्म करने के कौन कौन से हथकंडे अपना रही थी, उसका पूरा ताना-बाना किताब में मौजूद है। और चूंकि बतौर जिला मजिस्ट्रेट देवसहायम इमरजेन्सी के कुचक्र को रचने में लगे नौकरशाहो की टीम का हिस्सा भी थे तो 38 बरस बाद जिस ईमानदारी से वह तब के हालात को बयां करते हैं, उसे पढकर किसी के भी रोंगटे खड़े हो सकते हैं कि सत्ता जब मदहोश होती है तो कैसे संविधान को ताक पर रख कर सत्ताधारी खुद को सही ठहराने के लिये किसी भी हद तक चला जाता है। देश में कितनो को पता है कि जेपी को चंडीगढ़ पीजीआई में लाये जाने के चंद दिनों बाद ही जेपी के लिये डेथ ड्रिल की गई। इसे ऑपरेशन मेडिसीन नाम दिया गया। और इस डेथ ड्रिल की जानकारी देवसहायम के अलावा सिर्फ आठ लोगों को थी। जिसमें इंदिरा गांधी, गृह मंत्री,गृह राज्य मंत्री, गृह सचिव,कैबिनेट सचिव,विशेष सचिव शामिल थे। और डेथ ड्रील का मतलब था कैसे जेपी की मौत के बाद देश में खड़े होने वाले आंदोलन या बवाल को थामा जा सके। कैसे सेना को इससे दूर रखा जा सके। कैसे चंडीगढ़ में मौजूद आईटीबीपी और सीआरपीएफ की मदद आंतरिक सुरक्षा
के खतरे के नाम पर ली जाये। कैसे जेपी के अंतिम संस्कार को अंजाम दिया जाये। और इसके लिये कैसे दिल्ली से निर्देश दिया गया कि अंतिम संस्कार सरकारी सम्मान के साथ नहीं सिर्फ सम्मान के साथ सपन्न होगा। किताब सिर्फ इंदिरा गांधी के जेपी के इर्द-गिर्द कसते शिकंजे ही नहीं बताती बल्कि शिकंजे के दौरान जेपी को लेकर आम आदमी के मानस पटल पर पड़ रहे प्रभाव को भी उकेरती है।

मसलन 7 जुलाई से कॉलेजो के खुलने के बाद अगर छात्रों को पता चल जाये कि जेपी पीजीआई में कैद है तो चंडीगढ़ में क्या कुछ हो सकता है और इसके लिये जेपी को क्या जेल में शिफ्ट कर दिया जाये। हर तरह की व्यूह रचना के सामानातंर उस वक्त जेपी के अंदर जो गहन संघर्ष चल रहा था, उस धड़कन को पकड़ने का प्रयास “जयप्रकाश की आखिरी जेल” में किया गया है। क्योंकि लेखक ही प्रतयक्षदर्शी थे। तो वह किताब लिखते वक्त यह कहने से नहीं चूकते कि मै एक आईएस अधिकारी तो जरुर था लेकिन मै इस देश का नागरिक पहले था। जिसके लिये आजादी सबसे ज्यादा महत्व रखती थी और शायद इसीलिये जेपी के हर पत्र जो जेल में रहने के दौरान लिखे गये और जो मौखिक जवाब सरकार की तरफ से निर्देश के तौर पर चंडीगढ़ आये उसके बीच में लेखक ही थे तो किताब “जयप्रकाश की आखिरी जेल ” दस्तावेज की तरह है। मसलन 21 जुलाई को जेपी का इंदिरा को लिखा गया पत्र। जिसमें जेपी ने प्रभा की गोदी में खेल कर बड़ी हुई इन्दु यानी इंदिरा को पत्र लिखकर लोकतंत्र की हत्या की त्रासदी बयान की है। यह पत्र क्यों आवाम के सामने नहीं आया। और अगर आता तो क्या आशंकाए थीं। और पत्र के वह शब्द जिसमें जेपी लिखते है…मेरे चारों तरफ बूचडखाने हैं। मुझे डर है कि जीवन में मुझे ये दोबारा न देखने पड़े। हो सकता है मेरे भतीजे-भतीजियों को देखना पड़े। हो सकता है…लंबे पत्र के सार की यही दो बूंदे थी, जो मैं बिहार आंदोलन के अर्क के रुप में निकालना चाहता था। लेकिन आज में यहा उसी लोकतंत्र की मौत होते देख रहा हूं ।”

असल में किताब “जयप्रकाश की आखिरी जेल ”  इमरजेंसी के दौर की तमाम चिट्ठी पत्री इस किताब में दस्तावेज के रुप में मौजूद है। आलम यह है कि इंदिरा गांधी ने जो चिट्ठी राष्ट्रपति को लिखी वो चिट्ठी भी आज सरकार के पास नहीं है, जिस पर इंदिरा के हस्ताक्षर हैं। और लेखक ने बाकायद आरटीआई के जरिए सरकार से इन दस्तावेजों को समेटा है।  इससे पता चलता है कि इमरजेंसी किस तरह से इंदिरा गांधी ने देश पर थोपी। जेपी को समझने जानने के इच्छुक लोगों के साथ इतिहास में रुचि रखने वालों को इस किताब को जरुर पढ़ना चाहिए।

नाम —–जयप्रकाश की आखिरी जेल
लेखक—-एम जी देवसहायम
प्रकाशक—वितस्ता [टाइम्स ग्रुप बुक्स]
कीमत- 295 रुपए