जहां आतंकवाद की दस्तक नहीं,वहां युद्ध की तैयारी है

आतंकवाद ने जहां दस्तक नहीं दी, वहां युद्ध की आहट हो रही है । आतंकवादी हिंसा ने अपना निशाना भारत की अर्थव्यवस्था को बनाया। आर्थिक सुधार की लकीर में शहरों को जिस तरह शापिंग मॉल में बदल कर नागरिकों को झटके में उपभोक्ता बना दिया गया, उसने लोगों के दिलो दिमाग में मुनाफे और सौदेबाजी की लकीर भी खींच दी। इस लकीर में संबंधो का आधार उपभोक्ता हुआ,जिसने वर्ग विशेष को बांट दिया। अगर आतंकवाद के निशाने की जमीन देखे तो मुंबई, दिल्ली, बेंगलूर जैसे महानगर सेहोते हुये, महानगर की दिशा में कदम बढाते अहमदाबाद, जयपुर, हैदराबाद जैसे शहरो की तरफ निशानदेही होगी।

इस सिलसिले ने उन छोटे शहरो को भी घेरे में लिया, जो बड़े शहरों की तर्ज पर अपनी उड़ान भरना चाहते हैं। इसमें मालेगांव हो या बनारस । दरअसल, आतंकवादी हिंसा की जमीन का सच चाहे देश को छिन्न-भिन्न करने वाला हो, लेकिन इन जगहों पर बाजार का आतंक पैदा किया जा चुका था और उपभोक्ता होकर आतंक मचाने का खेल बीते दशक से लगातार बढता जा रहा था। इसलिये यह सवाल भी बार-बार उठता रहा कि आतंकवाद ने लोगों के भीतर जीने की जीजीविषा को नहीं तोड़ा है । हकीकत में यह जीजीविषा बाजार की है। जिसके भीतर समाने का तनाव व्यक्ति को किसी भी आतंक से लड़ने से ज्यादा उसे जल्दी से जल्दी भुल जाने का हुनर सिखा जाता है। इसीलिये आतंकवाद की दस्तक उन जगहों पर नहीं आयी, जहां बाजार ने अपना हुनर दिखाना शुरु नहीं किया है।

देश के सैकड़ों शहर हैं, जहां लोगों के लिये आतंकवादी हिंसा किसी किस्सागोई की तरह है । उत्तराखंड के कुमाऊँ में आतंकवाद उसी तरह है, जैसे महानगरों के शापिंग मॉल या फिर बड़े बड़े शहरों की भागती दौड़ती जिन्दगी को जीने के लिये तल्खी और तेवर भरे मुनाफे का ऑक्सीजन लगातार चाहिये । वहा सरोकार यानी किसी भी आम शख्स के साथ जुड़ाव का मतलब है मुनाफे भरी सौदेबाजी । जबकि कुमाऊँ के किसी भी इलाके में आप इस एहसास को जी सकते है कि आपका होना ही सामने वाले को सुकून देता है। आपकी जेब से उसे कुछ भी लेना देना नहीं है । यह हुनर देश की संस्कृति का हिस्सा है लेकिन बाजार आतंकवाद की गिरफ्त में समाकर विकसित होने का जो ख्वाब सरकार की नीतियों ने परोसा है, उसने संस्कृति को बेचने और खरीदने का हुनर भी उपभोक्ता में पैदा कर दिया। दरअसल, देश के भीतर दो तरह के भारत की समझ तो पूंजी के आसरे गाहे-बगाहे खूब उभरी है । लेकिन पहली बार जब आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान से दो दो हाथ करने का सवाल उठ रहा है तो कुमाऊँ इलाके में युद्द की उस स्थिति को महसूस किया जा सकता है, जिसने आतंकवाद न तो देखा है न ही भोगा। समूचे इलाके में कुमाऊँ रेजीमेंट की पहचान उत्तराखंड के उन परिवारो की है, जिनकी जिन्दगी शुरु ही बंदूक के साये में सैनिक बनने के लिये होती है। ऐसे परिवारों की लंबी फेहरिस्त है जो सेना में शामिल होने का ख्वाब उसी समय देख चुके होते हैं, जब आतंकवाद की गिरफ्त में आये शहरों के बच्चे मां के पल्लू में तकनीकी खिलौने का सुकून पाकर खेल खेलते है । शहरो के ये बच्चे हाथों में लेजर गन या गोलियों की आवाज निकालती बंदूक के सहारे दुशमन को ढेर कर खुश हो जाते हैं। यही बच्चे जब बड़े होते हैं तो कुछ बचपन को खरीदने के इस मुनाफे वाले धंधे को समझकर बिजनेस मैनेजमेंट की पढाई से गुर सिखते है तो कुछ बच्चे हिंसक हो कर स्कूल कालेजो में रिवाल्वर की नोंक पर अपने होने का अहसास अपने ही साथियों को कराकर कुछ अलग दिखने लगते है। जिनकी राह हर वस्तु को जल्दी से जल्दी पा लेना होता है। मां-बाप के लिए भी बच्चे की हर वह राह हसीन लगती है जिससे मुनाफा हो सकता है ।

लेकिन कुमाऊँ रेजीमेंट में शामिल होकर देश के लिये मर मिटने का जज्बा पहाड़ के बच्चे अपने परिवार के भीतर ही पा लेते हैं । हवालदार से लेफ्टि. कर्नल की जो भी पोस्ट हो, उसका स्वाद बालपन में ही अपने पिता या चाचा के जरिए यह जीते हैं। यही वजह है कि मुंबई में आतंकवादी हमलों के बाद जब पाकिस्तान पर उंगली उठी है और युद्दोन्माद का वातावरण समूचे देश में गहरा रहा है तो आतंकवाद के किस्से पहाड़ के परिवारो में युद्द की स्थितियों में जीने की तैयारी करने लगे हैं । कुमाऊँ रेजीमेंट में सभी की छुट्टी रद्द की जा चुकी है । हर कोई ड्यूटी पर है । कोई डिप्लायमेंट अभी नहीं हुआ है। लेकिन हल्की सी हवा रेजीमेंट के भीतर और जिन परिवारो के बच्चे सेना में शामिल है उनकी चारदीवारी में चल पड़ी है ।

यह हवा एक तरह का जोश भी पैदा कर रही है और उन भावनाओं का एहसास भी करा रही है, जो बाजार के आतंक के सामने घुटने टेक चुके है। यह भावनाये सरोकार की है । महानगर के जीवन के लिये यह सरोकार हाथ में मोमबत्ती लेकर राजनेताओ को खारिज कर या न्याय की मांग वाली नही है । बल्कि इस सरोकार में देश की मिट्टी को बचाने का जुनून है। राष्ट्रवाद की भावनाओ से ओत-प्रोत होकर सबकुछ गंवाते हुये भी जीने और मरने का सुकून है। बच्चों के सवाल अपने सैनिक बाप से यह नहीं होते की वह लौटेंगे या नहीं और सैनिक बाप का प्यार बेटे को यह एहसास नही कराता कि वह जल्द छुट्टी लेकर लौट आयेगा । बेटा बाप की बंदूक उठाने में और वर्दी सहेजने में प्यार पाता है और बाप बेटे को बंदूक उठवाकर जल्दी बड़ा होकर सेना में शामिल होने का प्यार देता है।

कुमाऊँ रेजीमेंट में यह किस्से आम हैं कि युद्द को देखे बिना या उसमें शामिल हुये बगैर एक पीढी रिटायरमेंट के कगार पर पहुंच गयी। और रिटायरमेंट से पहले बंदूक साफ करने का मौका मिले तो बात ही क्या है। कुमाऊं के इलाके में करगिल से ज्यादा 1984 में पंजाब में भिंडरावाला को लेकर आये उस मौके की याद ज्यादा ताजा है, जिसमें सबसे ज्यादा कुमाऊँ रेजीमेट के जवान शहीद हुये थे । जवानों के परिवारों के साथ बैठिये तो इंदिरा गांधी की हत्या से पहले के पंजाब के हर दश्य आंखो के सामने रेंगते है । कैसे सेना को भेजने के फैसले को कुमाऊँ रेजीमेंट के जवानों के सामने रखा गया । कैसे स्वर्ण मंदिर के भीतर रेजीमेंट के जवान हाथ उठाकर अंदर घुसे और मरते चले गये । कैसे मोर्चा संभाल कर पंजाब के आतंकवाद को हाशिये पर ढकेला। और किस तरह पंजाब आपरेशन के बाद वापस लौटते वक्त अपने साथियो के कंधो पर सिर रखकर अपने ही कई साथियों को गंवाने का दर्द उभरा। स्वर्ण मंदिर आपरेशन राजनीति ने चाहे कई सवाल खड़े किये और गाहे-बगाहे समाज के बीच लकीर भी समुदायों के जरीये खींची गयी लेकिन कुमाऊँ के इलाके में यह बहस कभी नही चली कि उस दौर में इंदिरा गांधी का फैसला कितना सही कितना गलत था । आपरेशन सफल होने की याद भी पहाड़ के इन परिवारो में खूब है। उसके बाद शहीद हुये परिवार के बच्चों ने कैसे बंदूक थामी । और देश के लिये मर मिटने का जज्बा कैसे पीढ़ी दर पीढ़ी इनके भीतर समाते चला जाता है, यह समझ परिवारों के बीच रह कर ही महसूस की जी सकती है ।

मुंबई हमलो के बाद टीवी न्यूज चैनलों की बहस-मुहासिब में जब पुलिस या एनएसजी या सेना के जवानों के लेकर यह बहस चल पड़ी कि सरकार उनकी सुविधाओं का ख्याल नहीं रखती। उन्हें और ज्यादा तनख्वाह मिलनी चाहिये। उम्दा हथियार मिलने चाहिये । तो पहाड के सैनिक परिवारों में यह सवाल भी हुआ कि ज्यादा देने या मिलने से देश का जज्बा पैदा नहीं होता। दिल्ली या मुंबई में लोगों को अपनी रईसी काटकर सेना या जवानों को आगे बढाने की सोच चाहिये । पहाड़ में तो शिद्दत के साथ यह सवाल कहीं ज्यादा तेजी से उभर रहा है कि जिस जिन्दगी को जीने की चाहत में देश को बढाया जा रहा है, उसकी कितनी जरुरत है। पूंजी बनाने के नाम पर देश की एकता को छिन्न-भिन्न किया जा रहा है..तो सेंध समाज के भीतर तो लगेगी ही।

कुमाऊँ रेजीमेंट का हेडक्वाटर रानीखेत में है। कुमाऊँ के किसी भी इलाके में खड होकर चीन की सीमा की दिशा देखी समझी जा सकती है। क्योंकि हिमालय की समूची रेंज रानीखेत से दिखायी देती है जिसके पार चीन है। और चीन को लेकर कुमाऊँ के इलाके में 1961 के युद्द की बहुत सारी तस्वीरें हैं। पहाडं का जीवन यूं भी खासा कष्ट भरा होता है और चीन ने जब कई मोर्च खोले थे तो उस वक्त अब के उत्तराखंड की सीमायें खासी सक्रिय थीं । लेकिन तब हथियार के नाम पर दुनाली और डंडे हुआ करते थे । तोप ऐसी थी, जिसे छोड़ते छोड़ते दुश्मन तोप तक पहुंच जाये । समूची यादों को समेटे कुमाऊँ इस बार आतंकवाद की आहट से अछूता होकर युद्द की यादों में खोया है। ये यादें देश की रक्षा का भरोसा तो दिलाती हैं, लेकिन समूचे कुमाऊँ की माली हालत देखकर कई सवाल भी खड़े होते हैं। क्या सरकार की भूमिका युद्द की स्थिति को खड़ा करना है । क्या बाजार आतंकवाद से कटे प्रदेशो में ही देश या राष्ट्रवाद का जज्बा बचा है। क्या महानगरीय जीवन या महानगर हो कर जीने की चाहत का पाठ पढाने वाले अर्थव्यवस्था भारत को बांट रही है। क्या आने वाली पीढियों को आतंकवाद या युद्द के जरिये ही राष्ट्रवाद का पाठ पढना होगा। और चुनावी लोकतंत्र की जरुरत जल्द ही कुमाऊँ जैसे प्रदेशो को लील लेगी।

क्योंकि जहां युद्द की तैयारी हो रही है, वहीं आतंकवाद के दस्तक देने की हिम्मत नहीं है।