जम्मू कश्मीर में बिछ रही चुनावी बिसात और भाजपा का +44 मिशन

जम्मू कश्मीर की वर्तमान विधान सभा के चुनाव २००८ में हुये थे । इसलिये क़ायदे से उसके चुनाव २०१३ में हो जाने चाहिये थे । लेकिन  जम्मू कश्मीर विधान सभा की उम्र छह साल है । देश में बाक़ी सब राज्यों में विधान सभाओं की उम्र पाँच साल की है । इसलिये अपनी सामान्य उम्र से एक साल की ज़्यादा उम्र भोग कर राज्य की विधान सभा अब २०१४ में अपना कार्यकाल समाप्त करेगी और नई विधान सभा के लिये चुनाव नबम्वर-दिसम्बर २०१४   में होंगे । ऐसा क्यों है ? इसका उत्तर संघीय संविधान के अनुच्छेद ३७० में छिपा हुआ है । यह अनुच्छेद राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वे संघीय संविधान के किसी प्रावधान को मूल रुप में या उसके संशोधित रुप में राज्य सरकार की सहमति से ही लागू कर सकते हैं । विधान सभा की पाँच साल की आयु वाले प्रावधान को जम्मू कश्मीर में लागू करने की सहमति राज्य सरकार ने नहीं दी । इसलिये १९७५ में आपात स्थिति के दौर में संविधान संशोधन के माध्यम से बढ़ाई गई विधान सभा की छह साल की उम्र अभी तक लागू है । जम्मू कश्मीर में इस समय शेख़ अब्दुल्ला परिवार की नैशनल कान्फ्रेंस और सोनिया कान्ग्रेस की संयुक्त सरकार है । दरअसल १९५२ से लेकर अब तक राज्य में नैशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस की ही सरकार है । एक बार पीपल्स डैमोक्रेटिक पार्टी की सरकार बनी थी लेकिन सहारा उसको भी सोनिया कांग्रेस का ही था । वैसे तो यदि और गहराई से जायें कि अब तक सरकार कश्मीरियों की रही है लेकिन अनुपात के लिये जम्मू , लद्दाख के कुछ लोगों को भी सरकार में डाला जाता है । ज़ायक़ा बदलने के लिये लोग दो अढाई साल के लिये राज्य के मुख्यमंत्री बने ग़ुलाम नबी आज़ाद का नाम भी ले देते हैं लेकिन डोगरे बताते हैं कि ग़ुलाम नबी के पुरखे जम्मू प्रान्त में कश्मीर से आकर ही बस गये थे ।  अब आने वाले विधान सभा चुनावों की तैयारियाँ राज्य में शुरु हो गईं हैं और उसी के अनुरूप राजनैतिक हलचल भी ।

राज्य में प्रमुख तौर पर चार राजनैतिक दल हैं । भारतीय जनता पार्टी , सोनिया कांग्रेस, नैशनल कान्फ्रेंस और पीपल्स डैमोक्रेटिक पार्टी । भारतीय जनता पार्टी को छोड़ कर बची बाक़ी तीनों पार्टियाँ आपस में तालमेल से या तो चुनाव लड़तीं हैं या फिर चुनाव हो जाने के बाद सरकार बनाती हैं । यह अलग बात है कि सोनिया कांग्रेस कभी नैशनल कान्फ्रेंस के साथ तालमेल करती है और कभी पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी के साथ । इस लिये जम्मू कश्मीर की सत्ता इन्हीं तीनों पार्टियों में सिमटी रहती है । वैसे केवल रिकार्ड के लिये बता दिया जाये कि पीपल्स डैमोक्रेटिक पार्टी के व्यवहारिक मुखिया मुफ़्ती मोहम्मद सैयद ने कांग्रेस से भाग कर ही इस नई पार्टी का गठन किया है । इन तीनों पार्टियों के अघोषित गठबन्धन से राज्य की सत्ता कश्मीर घाटी के कुछ परिवारों के बीच ही सिमट कर रह गई है । लेकिन पिछले पचास सालों की लूट खसूट , राजनैतिक अव्यवस्था और कुशासन के चलते     इन के प्रति आम जनता के मन में भयंकर निराशा उत्पन्न कर दी है ।   अब इन तीनों पार्टियों में इतनी हिम्मत नहीं रह गई है कि वे जनता के सामने मिल कर जा सकें । मिल कर जाने का भाव यह नहीं कि तीनों दल मिल कर चुनाव लड़ें  । ऐसा तो संभव नहीं है और न ही राज्य की राजनीति के इतिहास में कभी हुआ है । मिल कर का अर्थ केवल इतना ही है कि सोनिया कांग्रेस और पी डी पी या फिर सोनिया कांग्रेस और एन सी भी संयुक्त रुप से लोगों का सामना करने की स्थिति में नहीं हैं ।

ऐसे माहौल में नरेन्द्र मोदी के प्रयोग ने जिस प्रकार देश के शेष भागों में आशा का संचार किया है , उसी प्रकार जम्मू कश्मीर को भी उद्वेलित किया है । मोदी ने जिस प्रकार विकास और सुशासन  की बात की है , उससे जम्मू कश्मीर के युवाओं में भी आशा जगी है कि उनके लिये भी भविष्य में योग्यता के आधार पर उन्नति के नये रास्ते खुलेंगे और जम्मू कश्मीर कुछ परिवारों के एकाधिपत्य से मुक्त हो जायेगा । लेकिन ज़ाहिर है इससे राज्यसत्ता के आदी हो चुके चन्द परिवारों में हलचल होती और अभी तक मज़हब के आधार पर गेंडुली मार कर बैठी मुल्ला मौलवियों की फ़ौज में भी इस नये परिवर्तन से हडबडाहट होती है । आतंकवादियों के अप्पर ग्राउंड हिस्से में चिन्ता होना भी स्वाभाविक है । यदि राज्य का युवा विकास के नये पथ पर चल पड़ा तो ए के ४७ कौन पकड़ेगा ?

इस लिये घाटी आश्रित इन दलों ने चुनाव को ध्यान में रखते हुये नई रणनीति बनानी शुरु कर दी ।  पाकिस्तान के साथ भारत ने विदेश सचिव स्तर की बातचीत शुरु करने का निर्णय किया था । दिल्ली स्थित पाकिस्तानी राजदूत ने कश्मीर घाटी के हुर्रियत नेताओं को तुरन्त दिल्ली बुला लिया । रणनीति स्पष्ट थी । कम से कम घाटी के युवाओं को लगना तो चाहिये की हुर्रियत की प्रासांगिकता बरक़रार है । सरकार चाहे मोदी की ही क्यों न हो , हुर्रियत को पूछे बिना कश्मीर घाटी में पत्ता नहीं हिल सकता । यदि घाटी में हुर्रियत की ही प्रासांगिकता बरक़रार रहेगी तो युवाओं के लिये नये अवसर कहाँ से खुलेंगे ? हुर्रियत तो घाटी के सब दरवाज़े बन्द करना चाहती है । भारत सरकार ने  पाकिस्तान को आगाह किया कि दो देशों के बीच बातचीत हो रही है । भारत को इस बातचीत के लिये यदि किसी से सलाह भी लेनी होगी तो वह ख़ुद लेगा । पाकिस्तान के राजदूत का वार्ता से पहले हुर्रियत से मिलने का कोई तुक नहीं है ।  लेकिन पाकिस्तान को तो हर हालत में हुर्रियत की मदद करनी ही थी , क्योंकि इससे आगामी विधान सभा के चुनावों में जम्मू कश्मीर में हुर्रियत को मदद मिल सकती है । स्वाभाविक था वार्ता रुक जाती और वह रुक गई ।

इस के तुरन्त बाद सोनिया कांग्रेस , पी.डी.पी और नैशनल कान्फ्रेंस ने आसन्न विधान सभा चुनावों में अपना चुनाव घोषणा पत्र तैयार करने का काम चालू कर दिया । ताज्जुब है तीनों दल , चुनाव चाहे अलग अलग लड़ेंगे लेकिन उनके चुनावों का मुद्दा साँझा होगा । वह मुद्दा है कि चाहे जो मर्ज़ी हो जाये , पाकिस्तान के साथ वार्ता हर हालत में चालू रहनी चाहिये । वे इससे भी एक क़दम आगे बढ़ गये । तीनों ने मिल कर प्रदेश की  विधान सभा में प्रस्ताव पारित किया कि भारत को हर हालत में पाकिस्तान के साथ बातचीत करनी ही चाहिये । उन्होंने इस बात का ज़िक्र नहीं किया कि बातचीत से पहले पाकिस्तान निरन्तर भारतीय गाँवों में गोलीबारी कर सामान्य नागरिकों को मार रहा है । वह नियंत्रण रेखा का बार बार उल्लंघन कर रहा है । आतंकवादियों के समर्थकों को दिन दहाड़े दिल्ली स्थित अपने दूतावास में बुला कर षड्यंत्र रच रहा है । इन तीनों पार्टियों के लिये ये सभी बातें तुच्छ हैं , केवल महत्व की बात इतनी है कि किसी भी हालत में पाकिस्तान की मनुहार करते रहना चाहिये । मामला स्पष्ट है कि इन तीनों पार्टियों ने आपसी सलाह से या अलग अलग , अपना विधान सभा चुनावों का एजेंडा घोषित कर दिया है । ज़ाहिर है कि इससे जम्मू कश्मीर में सुशासन और विकास की आशा लगाये बैठे लोग चौंकते । ख़ास कर सीमान्त क्षेत्रों के वे लोग जो गाहे बगाहे पाकिस्तान की गोलीबारी का अकारण ही शिकार होते रहते हैं । इन तीन प्रमुख दलों की भविष्य की यह रणनीति देखते हुये , जो निश्चय ही राज्य को लम्बे अरसे तक अस्थिरता में रख सकती थी , राष्ट्रवादी शक्तियों  का चौंकना स्वाभाविक ही था ।

इस वातावरण में भारतीय जनता पार्टी ने पहल की । पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने आशा व्यक्त की कि राज्य को निराशा के इस भँवर से निकालने के लिये प्रदेश में राष्ट्रवादी सरकार बनाने के प्रयास करने चाहिये । उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा इस दिशा में पहल भी करेगी और प्रदेश की सभी राष्ट्रवादी शक्तियों को एक मंच पर एकत्रित करने का प्रयास भी करेगी । प्रदेश की विधान सभा में कुल मिला कर ११३ सीटें हैं । लेकिन फ़िलहाल इनमें से ८७ सीटों के लिये ही चुनाव होगा । शेष बची २६ सीटें गिलगित , बल्तीस्तान, मुज्जफराबाद और मीरपुर के उन इलाक़ों में है , जिन पर अभी तक पाकिस्तान का क़ब्ज़ा है । प्रदेश में ऐसी सरकार जो इन तीन दलों यानि सोनिया कांग्रेस , पी.डी.पी और नैशनल कान्फ्रेंस की ,राज्य को अस्थिरता में बनाये रखने की रणनीति को परास्त कर सके , तभी संभव हो सकती है यदि कोई दल ४४ या उससे ज़्यादा सीटें जीत लेता है । इसलिये अमित शाह ने इन चुनावों में भाजपा के लिये +44 का लक्ष्य घोषित किया ।

परन्तु लाख टके का एक ही प्रश्न है कि क्या भाजपा यह कर पायेगी ? यदि हाँ तो कैसे ? आख़िर अमित शाह की इस आशावादिता का आधार क्या है ? इस प्रश्न पर विचार करने से पहले जम्मू कश्मीर राज्य की राजनैतिक स्थिति का जायज़ा ले लिया जाये । राज्य की ८७ सीटों में से ३७ सीटें जम्मू संभाग में आती हैं और ४६ सीटें कश्मीर घाटी के हिस्से । यह अलग बात है कि आबादी दोनों संभागों की लगभग बराबर ही है । शेष बची चार सीटें लद्दाख में पड़ती हैं । दो लेह ज़िला में और दो शिया बहुल कारगिल ज़िला में । यदि शुद्ध मज़हब के आधार पर ही विचार किया जाये तो जम्मू संभाग की २५ लेह की दो और कारगिल की शिया समाज वाली दो सीटों को छोड़ कर शेष बची ४८ सीटें मुस्लिम बहुल हैं ।  यहाँ तक लोक सभा का प्रश्न है , लोक सभा की छह सीटों में से दो जम्मू संभाग , तीन कश्मीर घाटी और एक लद्दाख संभाग के हिस्से आती है । हाल ही में हुये लोक सभा चुनावों में जम्मू व लद्दाख संभाग की तीनों सीटें भाजपा ने और कश्मीर घाटी की तीनों सीटें पी.डी.पी ने जीत ली हैं । १९४८ से लेकर आज तक , केवल तीन साल की अवधि छोड़ कर , राज्य में कांग्रेस या नैशनल कान्फ्रेंस का ही राज रहा है और इन चुनावों में ये दोनों पार्टियाँ लोक सभा की एक सीट भी जीतने में सफल नहीं हो पाईं । जहाँ तक प्राप्त मतों का प्रश्न है , भाजपा को ३२.२ , सोनिया कांग्रेस को २२.९ , पी.डी.पी को २०.५ और नैशनल कान्फ्रेंस को ११.१ प्रतिशत मत मिले । यदि मतों की गिनती के हिसाब से बात की जाये तो भाजपा को ग्यारह लाख पचास हज़ार वोट मिले । सोनिया कांग्रेस को ८.५ , पी.डी.पी को ७.३ लाख और नैशनल कान्फ्रेंस को तो चार लाख से भी कम वोट मिले । लेकिन यह ध्यान रखना और भी जरुरी है कि भाजपा और सोनिया कांग्रेस को मोटे तौर पर जम्मू क्षेत्र से ही वोट मिले और पी.डी.पी व नैशनल कान्फ्रेंस को ज़्यादातर कश्मीर घाटी से ही वोट मिले । जम्मू संभाग के डोडा , रामबन , किश्तवाड , राजौरी  और पुँछ के इलाक़ों से पी.डी.पी व नैशनल कान्फ्रेंस ने भी सम्मानजनक वोटें प्राप्त कीं , जबकि भाजपा को घाटी में , केवल उपस्थिति दर्ज करवाने लायक वोटों ही मिल पाईं । जहाँ तक जम्मू व लद्दाख का प्रश्न है , इन लोक सभा चुनावों में इन दोनों  लोक सभा क्षेत्रों के अन्तर्गत आती तीन लोक सभा सीटों के अन्तर्गत विधान सभा की ४१ सीटें आती हैं और उनमें से ३३ पर भाजपा ने जीत दर्ज कराई है ।

लेकिन नबम्वर-दिसम्बर में होने वाले विधान सभा चुनावों में क्या कुछ नये समीकरण बन सकते हैं ? सबसे पहले सोनिया कांग्रेस की बात ही की जाये । सोनिया कांग्रेस को कुल मिले वोटों में से जम्मू संभाग से ७.८ लाख वोट मिले । इसका अर्थ यह हुआ कि भाजपा और सोनिया कांग्रेस , दोनों का ही मुख्य आधार जम्मू संभाग और लद्दाख में ही है । नरेन्द्र मोदी के दिल्ली में सत्तारूढ़ हो जाने के बाद जम्मू क्षेत्र की फ़िज़ा बदली है । वहाँ यह भावना घर कर गई है कि सोनिया कांग्रेस अब राज्य में किसी भी हालत में सरकार नहीं बना सकती । अप्रतिबद्ध मतदाता कभी भी उस पार्टी को वोट नहीं देता जो उस की नज़र में हार रही हो । हालात संकेत कर रहे हैं कि सोनिया कांग्रेस लोगों की नज़र में हार रही है । इस लिये यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि विधान सभा के चुनावों में जम्मू संभाग में लोगों का झुकाव भाजपा की ओर हो सकता है । यही कारण है कि सोनिया कांग्रेस के प्रमुख नेता भाजपा की ओर भाग रहे हैं । यहाँ तक की उसके एक नेता ने यह कहने तक की हिम्मत जुटा ली है कि जम्मू कश्मीर में हिन्दू मुख्यमंत्री क्यों नहीं हो सकता ? अनुमान लगाया जा रहा है कि  इस क्षेत्र की ३७ सीटों में से ज़्यादातर सीटों पर भाजपा का क़ब्ज़ा हो सकता है । जम्मू संभाग में ही चनाब घाटी के साथ साथ राजौरी  व पुँछ की बारह सीटों पर यदि सोनिया कांग्रेस , पी.डी.पी और एन.सी अलग अलग भिड़ते हों , जो वे भिड़ेंगे ही , तो मुस्लिम वोट इन तीनों में विभाजित हो जायेगा । दुर्भाग्य से ये तीनों दल अपनी जीत हार के लिये इन्हीं मुस्लिम वोटों पर आस लगाते हैं । इसका लाभ भाजपा को मिल सकता है । कुछ मास पहले किश्तवाड में हुये दंगों ने इन तीनों दलों को नंगा कर दिया था । इन समीकरणों से भाजपा जम्मू संभाग की ३७ सीटों में से तीस से ज़्यादा सीटें ले जा सकती है । इसी प्रकार लद्दाख संभाग की चार सीटों पर भी भाजपा ज़ोर आज़माइश करेगी ही , ख़ास कर तब जब पार्टी ने पहली बार लद्दाख की लोक सभा सीट पर क़ब्ज़ा जमाया है । नरेन्द्र मोदी पिछले दिनों स्वयं लद्दाख का दौरा करके आये हैं , इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि भाजपा इसे कितना महत्व देती है । लेकिन इन सब समीकरणों के बावजूद इतना तो स्पष्ट है कि भाजपा जम्मू व लद्दाख की ४१ सीटों को ही ध्यान में रख कर मिशन + ४४ पूरा नहीं कर सकती । क्योंकि यदि यही कल्पना कर ली जाये कि भाजपा ये सभी ४१ सीटें जीत सकती है , तब भी उसे कश्मीर घाटी की ४६ सीटों पर स्वयं या अपने मित्र दलों की सहायता से संबंध लगानी ही होगी । वैसे केवल रिकार्ड के लिये , कश्मीर घाटी की ४६ सीटों में से २५ पर भाजपा ने २००८ के चुनावों में अपने प्रत्याशी खड़े किये थे और १६००० से भी ज़्यादा मत प्राप्त किये थे ।

फ़िलहाल स्थिति यह है कि पिछले कुछ वर्षों से कश्मीर घाटी की राजनीति पी.डी.पी और नैशनल कान्फ्रेंस में बँट कर रह गई है । सोनिया कांग्रेस धीरे धीरे वहाँ से निष्कासन की स्थिति को भोग रही है । इस बार के लोक सभा के चुनावों में तो घाटी की तीनों सीटों श्रीनगर , अनन्तनाग और बारामुला पर पी.डी.पी का ही क़ब्ज़ा हो गया । उसने शेख़ अब्दुल्ला परिवार की पार्टी नैशनल कान्फ्रेंस का घाटी में से सफ़ाया कर दिया । पी.डी.पी ने घाटी में ५.५० लाख वोट प्राप्त किये । पिछले कुछ अरसे से भाजपा ने कश्मीर घाटी में अपनी गतिविधियों को तेज़ किया है । पार्टी के युवा मोर्चा के राज्य अध्यक्ष रवीन्द्र रैना ने घाटी के अनेक हिस्सों में यात्राओं का आयोजन किया था । इन्द्रेश कुमार के मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने भी श्रीनगर में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है । सबसे बढ़ कर , कुछ महत्वपूर्ण मुस्लिम नेता भाजपा में शामिल हुये हैं । इससे यह अन्दाज़ा तो सहज ही लगाया जा सकता है की घाटी में अब पार्टी कम से कम अप्रासांगिक नहीं है । सांसद रह चुके मोहम्मद शफ़ी भट्ट की बेटी डा० हिना भट्ट कुछ समय पहले भाजपा में शामिल हो गई है । शफ़ी भट्ट एन.सी के विधायक हैं । इससे अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि पार्टी ने पढ़ी लिखी युवा पीढ़ी को घाटी में भी आकर्षित करना शुरु किया है । घाटी की जनसंख्या में से गुज्जर बकरवाल और शिया समाज के लोग भाजपा की ओर जा सकते हैं । या कम से कम इसकी शुरुआत इन चुनावों में हो सकती है । शिया समाज तो कश्मीर घाटी में मुसलमानों के निशाने पर रहता है । उसे आज भी ताजिया निकालने के कारण मुसलमानों के कोप का भाजक बनना पड़ता है । इसी प्रकार गुज्जर बकरवाल कभी भी कश्मीरी भाषी मुसलमान के साथ अपने आप को सहज महसूस नहीं कर पाया । कश्मीरी मुसलमान उसको दोयम दर्जे का ही मानता है । यही कारण है कि गुज्जर आतंकवादियों के निशाने पर भी रहा । पी.डी.पी और नैशनल कान्फ्रेंस की सबसे बड़ी चिन्ता घाटी में कम मतदान होना रहता है । क्योंकि आतंकवादियों का कोई न कोई समूह चुनाव के बहिष्कार का आह्वान कर देता है और भय के कारण या फिर घाटी के इन राजनैतिक दलों की निराशाजनक कारगुज़ारी के कारण , मतदाता बहुत कम संख्या में घर से निकलते हैं । अभी तक तो इस कम मतदान से तीनों दलों मसलन सोनिया कांग्रेस , पी.डी.पी और नै.कां को व्यवहारिक रुप से कोई नुक़सान नहीं होता था क्योंकि मतदान कम हो या ज़्यादा , घाटी की सीटें इन्हीं तीन दलों में बँटनी थीं । ( बाद में सीटें केवल दो दलों में बँटने लगीं । घाटी में से सोनिया कांग्रेस अप्रासंगिक होने लगी) । लेकिन अब घाटी में भाजपा ने प्रवेश ही नहीं किया है , बल्कि बदली परिस्थिति में वह यहाँ गंभीरता से सीटें जीतने के लिये प्रयत्नशील भी है । भाजपा अपने साथ कश्मीरी हिन्दुओं -सिक्खों, प्रवासी कश्मीरी पंडितों को तो जोड़ेगा ही , इस बार वह गुज्जरों बकरबालों , शिया समाज के वोट बैंक में भी संेध  लगा सकता है । इसी प्रकार कश्मीरी भाषी मुसलमानों की युवा पीढ़ी को भी वह प्रतीकात्मक रुप से ही क्यों न हो , अपनी ओर आकर्षित कर सकता है । क़िस्सा कोताह यह कि भाजपा घाटी में प्रतिबद्ध मतदाता समूह अपने साथ जोड़ने के प्रयास कर रहा है । यदि भाजपा अपने इस मिशन में कामयाब हो गई तो घाटी में कम मतदान पार्टी को लाभ पहुँचा सकता है ।      श्रीनगर में हब्बा कदल, अमीरा कदल ,खन्यार के अतिरिक्त कुलगाम , अनन्तनाग, तराल , गन्दरबल और सोपोर जैसे स्थानों में भी हिन्दू सिक्ख मतदाता चुनाव परिणाम को प्रभावित कर सकते । भाजपा इन सीटों पर रणनीतिक कौशल से ज़ोर आज़माइश कर सकती है ।

लेकिन भाजपा जानती है कि घाटी में पैर ज़माने के लिये केवल यही प्रयास पर्याप्त नहीं होंगे । उसे अपने साथ घाटी के छोटे मोटे राजनैतिक दलों या प्रभावी व्यक्तियों को भी साथ लेना होगा । कश्मीर घाटी के विभिन्न राजनैतिक दलों के आपसी मत भेद होने के कारण भी भाजपा को इस बार उसका लाभ मिल सकता है । इस दिशा में सज्जाद गनी लोन की पीपल्स कान्फ्रेंस और अवामी इत्तिहाद पार्टी के मैदान में कूदने का लाभ अप्रत्यक्ष रुप से  भाजपा को ही मिलेगा । लोन का कुपवाडा ज़िले में प्रभाव है । भाजपा के कुछ नेता लोन के सम्पर्क में भी हैं । जिस प्रकार हरियाणा में सोनिया कांग्रेस और लोक दल से टूट कर लोग भाजपा में शामिल हो रहे हैं , यदि उसी प्रकार घाटी में से भी प्रमुख राजनैतिक दलों के जनाधार वाले कुछ नेता भाजपा की ओर चल पड़ते हैं तो इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव जरुर पड़ेगा । दूसरे अमित शाह घाटी के हिन्दू सिक्ख मतदाताओं के प्रभाव क्षेत्र को निशाना बना सकते हैं । एक अनुमान के अनुसार घाटी छोड़ने से पूर्व घाटी में अढाई लाख के लगभग पंजीकृत मतदाता थे । घाटी के भीतर अभी भी कुछ इलाक़ों में हिन्दू सिक्ख थोड़ी बहुत संख्या में रहते हैं । नरेन्द्र मोदी सरकार ने कश्मीरी हिन्दुओं के पुनर्वास के लिये जो नई नीति अपनाई है , उससे भी इम लोगों में आशा जगी है । नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने से घाटी के मुस्लिम युवा में भी जो एक नई आशा जगी है , वही इन परम्परागत दलों की चिन्ता का कारण बनी हुई है ।

भाजपा के मिशन +४४ के मूल में जम्मू-लद्दाख पर ज़ोर और घाटी में सेंध का फ़ार्मूला है जिस में उसे वर्तमान हालात में उसे सफलता भी मिल सकती है । इतना तो निश्चित है कि इस बार राज्य के राजनैतिक नक़्शे में बदलाव लाज़िमी आयेगा । घाटी की ४६ सीटों पर मुक़ाबला तो परम्परानुसार पी.डी. और नैशनल कान्फ्रेंस में ही होगा लेकिन ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है कि इस बार पी.डी.पी को कुछ लाभ हो सकता है , जिसके संकेत लोक सभा चुनावों से मिलते हैं । लेकिन ध्यान रखना चाहिये कि २००८के विधान सभा चुनाव के मुक़ाबले पी.डी.पी का वोट प्रतिशत इस बार भी लगभग उतना ही रहा । तब उसे बीस प्रतिशत वोट मिले थे और लोक सभा के चुनावों में २१ प्रतिशत हो गये । यह ठीक है कि उसने ४० विधान सभाई हलकों में बहुमत हासिल किया लेकिन दस में लगभग यह बहुमत सौ वोटों के आसपास ही सिमटा हुआ था । लेकिन इतना तय है कि घाटी में नैशनल कान्फ्रेंस और पी.डी.पी के बीच के घमासान में पी.डी.पी का पलड़ा निश्चित ही भारी रहेगा ।  इसी प्रकार जम्मू-लद्दाख में मुक़ाबला भाजपा और सोनिया कांग्रेस के बीच होगा और यहाँ  की ज़्यादा सीटों पर भाजपा जीत सकती है । इस प्रकार प्रदेश में त्रिदलीय व्यवस्था स्थापित होने के संकेत मिलने शुरु हो गये हैं । परिणाम स्वरुप प्रदेश में भाजपा और पी.डी.पी -नैशनल कान्फ्रेंस की त्रिदलीय व्यवस्था स्थापित हो सकती है । इतना तो निश्चित है कि भाजपा इस बार प्रदेश में मुख्य खिलाड़ी के रुप में उभरेगी ।

वैसे राज्य में पिछले कुछ समय से एक और माँग भी ज़ोर पकड़ती जा रही है । विधान सभा की २६ सीटें उन क्षेत्रों की हैं जो फ़िलहाल पाकिस्तान के क़ब्ज़े में हैं । इस लिये चुनाव आयोग के लिये वहाँ चुनाव करवाना संभव नहीं है । परन्तु उन क्षेत्रों के लाखों माईग्रेंट मतदाता राज्य के उन हिस्सों में रह रहे हैं , जहाँ चुनाव आयोग चुनाव करवा रहा है । यह माँग उठ रही है कि जिस प्रकार कश्मीरी माईग्रेंट मतदाता को राज्य के बाहर से भी मतदान का अधिकार दिया गया है , उसी प्रकार इन २६ सीटों में से कुछ के चुनाव करवा लिये जायें और उन क्षेत्रों के माईग्रेंट मतदाताओं के लिये जम्मू इत्यादि स्थानों पर मतदान केन्द्र स्थापित किये जायें । चुनाव आयोग इसे स्वीकार करता है या नहीं , यह बाद की बात है लेकिन इस ने राज्य में एक नई बहस को तो जन्म दे ही दिया है , जिसका लाभ भाजपा को मिल सकता है ।

अभी जम्मू कश्मीर जिस प्राकृतिक आपदा का शिकार हुआ है , ख़ासकर कश्मीर घाटी एक प्रकार से जेहलम नदी की उत्ताल लहरों में डूब ही गई है उसमें वहाँ के लोगों ने नरेन्द्र मोदी की सरकार की प्रशासकीय दक्षता का लोहा स्वीकार किया है । इस प्राकृतिक आपदा के आगे उमर अब्दुल्ला का प्रशासन देखते ही देखते ताश के पत्तों की तरह ढह गया । संकट काल में ही किसी का नेतृत्व और प्रशासकीय  दक्षता की परख होती है । वैसे तो फ़ारूक़ और उमर , बाप बेटे की जोड़ी पहले भी कभी अपनी योग्यता और दक्षता के लिये विख्यात नहीं रही , लेकिन इस संकट काल में उसने जिस प्रकार राज्य के लोगों को अल्लाह के  भरोसे छोड़ दिया , उसने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया । इस अवसर पर सेना के तीनों अंगों के लगभग एक लाख जवान जिस जीवट से आपदा प्रबन्धन में जुटे और नरेन्द्र मोदी ने जो कुशल नेतृत्व प्रदान किया उसकी प्रशंसा सोनिया कांग्रेस के दिग्विजय सिंह और ग़ुलाम नबी आज़ाद को भी करनी पड़ी । इससे राज्य में विशेष कर घाटी में नरेन्द्र मोदी के प्रति विश्वास का भाव और गहरा हुआ है ।

दिल्ली में बैठे कुछ राजनैतिक पंडितों की चिन्ता इस बात को लेकर बढ़ती जा रही है कि भाजपा के मिशन +44 से राज्य में मज़हब के आधार पर ध्रुवीकरण हो सकता है । उनको लगता है कि इस तथाकथित ध्रुवीकरण के घाटी में बहुत ही भयंकर दुष्परिणाम हो सकते हैं । जबकि ज़मीनी स्तर पर स्थिति इस के बिल्कुल उलट है । फ़िलहाल घाटी में स्थिति यह थी कि पी.डी.पी और नैशनल कान्फ्रेंस , दोनों ने ही राजनीति का अपने बीच ध्रुवीकरण किया हुआ था और प्रदेश की सभी नौकरियों पर इन दोनों दलों के तथाकथित कार्यकर्ताओं ने ही क़ब्ज़ा किया हुआ है । इस ध्रुवीकरण के बीच आम कश्मीरी , जो योग्यता के आधार पर नौकरी लेना चाहता था , वह पिस रहा था । अनुच्छेद ३७० के नाम पर भावनात्मक शोषण करके , उसकी आड़ में इन दोनों दलों ने अपनी निरंकुश राजशाही स्थापित कर रखी है । भाजपा ने पहली बार अनुच्छेद ३७० को हटाने की माँग न करके आम जनता के लिये उसके नफ़े नुक़सान पर बहस करने की माँग की है । ताज्जुब है जब कश्मीर घाटी के लोग सोनिया कांग्रेस समेत इन दोनों दलों के नेताओं से इस अनुच्छेद के लाभों पर कुछ सुनना चाहते हैं तो ये सभी नेता उस बहस से भाग ही नहीं रहे बल्कि उसका विरोध भी कर रहे हैं । यही स्थिति हुर्रियत की भी है । उनके इस आचरण से कश्मीर घाटी के लोग , ख़ासकर बुद्धिजीवी वर्ग अनुच्छेद ३७० के मायावी जाल से बाहर आ रहा है । यही इन दोनों दलों की चिन्ता का कारण है । भाजपा की इस पहल ने ध्रुवीकरण को तोड़ा है ।