गुजरात और हिमाचल के चुनाव  नतीजे

गुजरात और हिमाचल प्रदेश की विधान सभाओं के नतीजों पर सारे देश की नज़र लगी हुई थी । दोनों राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी , इसलिये कांग्रेस की पूरी रणनीति किसी भी तरह सत्ता पर दोबारा क़ब्ज़ा ज़माने की थी । भाजपा के लिये इन राज्यों में सत्ता पर पकड़ बनाये रखना इसलिये भी ज़रूरी था , क्योंकि २०१४ में होने जा रहे लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुये , ये परिणाम कांग्ेस पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के काम आ सकते थे । शुद्ध गणितीय दृष्टि से देखें तो दोनों दल परिणामों पर संतोष प्रकट कर सकते हैं । गुजरात में भाजपा ने जीत दर्ज करवाई और हिमाचल में कांग्रेस ने सचिवालय पर क़ब्ज़ा कर लिया । यदि चाहे तो कांग्रेस अतिरिक्त संतोष भी ज़ाहिर कर सकती है कि उसने भाजपा से हिमाचल प्रदेश छीन लिया है । परन्तु दुर्भाग्य से राजनीति गणितीय सूत्रों से संचालित नहीं होती । सोनिया गान्धी चाहे न सही , उसके सलाहकार तो अच्छी तरह जानते ही हैं कि देश विदेश में सभी की नज़र गुजरात के चुनावों पर लगी हुई थी , हिमाचल के चुनावों की राष्ट्रीय परिदृश्य में कोई महत्ता नहीं थी । और इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि गुजरात में सोनिया कांग्रेस केवलपराजित ही नहीं हुई बल्कि वह प्रदेश की राजनीति में अप्रासांगिक हो गई है । सोनिया कांग्रेस की जो दुर्दशा हुई है वह गुजरात में आपात स्थिति के बाद हुये चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की भी नहीं हुई थी । कांग्रेस के सभी दिग्गज हार गये । सोनिया गान्धी को भारत और भारतीय राजनीति समझाते रहने वाले अहमद पटेल के अपने इलाक़े में दूर दूर तक सोनिया कांग्रेस का कोई प्रत्याशी नहीं जीता ।  यहाँ तक की मुस्लिम बहुल इलाक़ों में भी भाजपा के प्रत्याशियों ने जीत दर्ज करवाई ।

वैसे तो भाजपा ने १९९० से ही अपनी असरदार उपस्थिति दर्ज करवानी शुरुआत कर दी थी जब उसे विधान सभा चुनावों में पहली बार लगभग २७ प्रतिशत मत मिले थे । लेकिन १९९५ के अगले ही विधान सभा चुनावों में भाजपा ने १८२ सदस्यों की विधान सभा में अपने बलबूते १२१ सीटें जीत कर सब को चौंका दिया था । भाजपा को इन चुनावों में ४२.५१ प्रतिशत मत मिले थे और कांग्रेस केवल ४५ सीटें ही जीत पाई थी । उसके बाद गुजरात में १९९८ में विधान सभा चुनाव हुये । भाजपा ने ४४.८१ प्रतिशत वोट लेकर ११७ सीटें जीतीं । २००२ के चुनावों में भाजपा ने ४९.८५ प्रतिशत मत लेकर १२७ सीटें जीतीं । कांग्रेस केवल ५१ सीटों पर सिमट गई । २००७ के विधान सभा चुनावों में भाजपा ने ४९.१२ प्रतिशत मत लेकर एक बार फिर ११७ सीटों पर जीत दर्ज करवाई । कांग्रेस को इस बार सर्वाधिक सीटें ५९ मिलीं । इस बार २०१२ के चुनावों में भाजपा लगभग पचास प्रतिशत मत लेकर १२० सीटें जीत पाई है और कांग्रेस लगभग पचास सीटों का आँकड़ा पार नहीं कर सकी है । इन आँकड़ों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि १९९५ से लेकर २०१२ तक गुजरात में भाजपा ११७ से लेकर १२७ सीटों के बीच और सोनिया कांग्रेस ४५ से लेकर ५९ सीटों के बीच दोलायमान है ।

भाजपा सरकारों के बारे में देश भर में एक बात प्रचलित थी कि भाजपा की सरकार किसी भी प्रदेश में रिपीट नहीं होती । नरेन्द्र मोदी ने सबसे पहले भाजपा सरकारों के बारे में प्रचलित इस मिथ को तोड़ा । यह ठीक है कि बाद में मध्य प्रदेश ,और छत्तीसगढ़ की भाजपों सरकारों ने सरकार रिपीट करने की इस परम्परा को आगे बढ़ाया लेकिन नरेन्द्र मोदी के इस प्रयोग की तुलना तो पश्चिमी बंगाल में साम्यवादी सरकार के उदाहरण से ही  की जा सकती है । पश्चिमी बंगाल में साम्यवादी सरकार की निरन्तरता को पिछली बार तृणमूल की ममता बनर्जी ने सफलता पूर्वक रोक दिया । यही काम इस बार सोनिया कांग्रेस गुजरात में नरेन्द्र मोदी के अश्वमेध के घोड़े को रोककर करना चाहतीं थीं । सोनिया गान्धी और उनके प्रधानमंत्री पद के इच्छुक बेटे राहुल गान्धी ने गुजरात में जाकर इस के लिये बहुत प्रयास भी किया । लेकिन कांग्रेस के दुर्भाग्य से न तो सोनिया गान्धी में ममता बनर्जी जैसे संघर्ष की उर्जा है और न ही भारत की जनता की की नब्ज़ को पढ़ पाने की योग्यता । इसलिये माँ बेटे की जोड़ी ने गुजरात में मोदी के लिये जिन शब्दों का प्रयोग किया उससे वहाँ के निवासियों में कांग्रेस के प्रति ग़ुस्सा ही उपजा । यही कारण है कि तमाम प्रयासों के बाबजूद कांग्रेस अपने २००७ के आँकड़े को भी छू नहीं पाई ।

चुनावों में मोदी के सामने एक समस्या विरोधी राष्ट्रीय मीडिया भी था । ख़ास कर इलैक्ट्रिोनिक मीडिया । यह मीडिया मोदी को देश की जनता के सामने नकारात्मक रुप से ही प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहा था । मोदी को हराने के चक्कर में कांग्रेस ने साम्प्रदायिक पत्ते खेलने में भी संकोच नहीं किया । इसी को ध्यान में रखते हुये पार्टीं ने पुलिस कर्मचारी संजीव भट्ट की पत्नी श्वेता भट्ट को मणिनगर में मोदी के मुक़ाबले उतारा । ये वही संजीव भट्ट हैं जो मोदी को गुजरात दंगों का दोषी बताते हुये आयोगों के सामने पेश होते थे । कांग्रेस को आशा थी कि इससे मुसलमानों के वोट उसके पक्ष में हो जायेंगे । मुसलमान तो कांग्रेस के पक्ष में अलबत्ता नहीं हुये । हाँ , यह अवश्य पता चल गया कि संजीव भट्ट कांग्रेस के षड्यन्त्र के तहत ही मोदी को दंगों में फँसाने का प्रयास कर रहे थे । लेकिन मोदी को इस बात का श्रेय देना होगा कि इस प्रकार की परिस्थितियों में भी उन्होंने पूरा चुनाव विकास के मुद्दे को आधार बना कर ही लड़ा । राज्य में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कांग्रेस की कोशिश को उन्होंने कामयाब नहीं होने दिया ।

इस चुनाव की एक और ख़ासियत कही जा सकती है। सोनिया कांग्रेस ने भी यह चुनाव भाजपा के असंतुष्ट लोगों के बलबूते ही लड़ा । कांग्रेस का अपना जनसाधारण प्रदेश में अत्यन्त सीमित हो गया है । अत: कांग्रेस मुख्य तौर पर भाजपा के ही केशुभाई पटेल की ताक़त से मोदी को होने वाले संभावित नुक़सान से अपनी सीटें बढ़ाने के ख़्वाब देख रही थी । लेकिन उसका यह सपना भी गुजरात के लोगों ने पूरा नहीं होने दिया । भाजपा को प्रदेश के प्रत्येक हिस्से से , चाहे वह सौराष्ट्र हो या उत्तरी गुजरात , आशातीत सफलता मिली है । अत : यहनहीं कहा जा सकता कि अब भाजपा गुजरात के किसी एक हिस्से या जाति की पार्टी है । मोदी ने सभी वर्गों के वोट लेकर सिद्ध कर दिया है कि पार्टी का पूरे प्रदेश में समान जनधार है ।

वैसे एक अन्य दृष्टि से देखा जाये तो गुजरात में पूरे परिदृश्य में कांग्रेस कहीं थी ही नहीं । भाजपा ही अलग अलग नामों से यह चुनाव लड़ रही थी । कांग्रेस की कमान संभाले हुये शंकर सिंह बघेला भी भाजपा के ही थे । गुजरात परिवर्तन पार्टी का झंडा लगा कर मैदान में निकले केशुभाई पटेल भी भाजपा के ही है । नरेन्द्र मोदी के पास तो भाजपा की आधिकारिक तौर पर कमान है ही । यदि ये सभी अलग अलग वाहनों और ध्वजों को धारण कर नहीं बल्कि मिल कर चुनाव लड़ते तो शायद कांग्रेस की स्थिति बिहार और उत्तर प्रदेश से भी बदतर हो जाती । भाजपा को यदि सचमुच २०१४ के चुनावों में दिल्ली की गद्दी तक पहुँचने की रणनीति बनानी है तो उसे किसी तरह भीतर की इस फूट को दूर करने का उपाय खोजना होगा । इसी लड़ाई ने गुजरात में भाजपा की टैली को १२० तक सीमित कर दिया , अन्यथा यह १५० को पार कर सकती थी । कल्याण सिंहों , येदुरप्पाओं , उमा भारतियों , केशुभाई पटटेलों को संभालने का यदि कोई रास्ता न निकला तो भाजपा के लिये २०१४ की सफल रणनीति बनाना इतना आसान नहीं होगा । गुजरात चुनाव से यही सबक़ भाजपा को लेना होगा ।