क्‍यों फ्लाप हुआ भारत बंद

     विरोधी दलों द्वारा घोषित भारत-बंद को विफल तो होना ही था। इसके कई कारण हैं। एक तो आम आदमी आज भी यह मानता है कि मोदी ने यह नोटबंदी देश के भले के लिए की है। वह परेशानियों से काफी नाराज है लेकिन फिर भी वह उसे बर्दाश्त कर रहा है। दूसरा, लोग बैंक की कतारों में लगे या भारत बंद में शामिल हों? शनिवार-इतिवार को बैंकों की छुट्टी थी। सोमवार को उन पर भीड़ लगनी ही थी। विरोधी नेताओं को इसका अंदाज नहीं रहा होगा। दिल्ली में विरोधियों की सरकार है लेकिन दिल्ली में बंद का कोई असर नहीं दिखा। तीसरा, दुकानदारों और मजदूरों के लिए यह बंद ‘गरीबी में आटा गीला’ जैसी स्थिति पैदा कर रहा था। बंद करेंगे तो खाएंगे क्या? चौथा, विरोधी दलों में ही बंद को लेकर एका नहीं था। विभ्रम था। जिन नेताओं का अपने इलाके में कुछ असर है, वहां भी बंद नहीं हुआ पर प्रदर्शन जरुर हुए लेकिन ऐसे प्रदर्शन तो वे किसी भी बहाने से करवा सकते हैं।

     इसका अर्थ यह नहीं कि सरकार मौज करने लगे। जैसे उसने एक नकली जन-सर्वेक्षण करवा कर नोटबंदी को ठीक सिद्ध करने की कोशिश की। उसकी मजाक बन गई। बदहवास होने पर सरकारें इसी तरह की हरकतें करती हैं लेकिन संतोष की बात यही है कि यह सरकार बदहवास होने के बावजूद होशो-हवास में है। इस सरकार में कुछ ऐसे मंत्री हैं, जो अपने आप को सर्वज्ञ नहीं समझते और उनमें जरुरी लचीलापन भी है। वे ऊपर से टपके हुए नेता नहीं हैं। वे जनता से जुड़े हुए लोग हैं। वे रोज-रोज रचनात्मक सुझाव दे रहे हैं ताकि कीचड़ में फंसा हाथी किसी तरह बाहर निकल सके।

     आज संसद में आया, नया आयकर संशोधन विधेयक इसी तरह की एक पहल है। इस तरह की पहल करने की बात मैंने तीन दिन पहले दोहराई थी। उसे मैंने 8-9 नवंबर को भी सुझाया था। इस पहल के बावजूद काला धन खत्म होने वाला नहीं है। यह सिर्फ अल्पकालिक राहत है। यह राहत उस भयंकर धक्के का इलाज कैसे करेगी, जो अर्थव्यवस्था को रोज लग रहा है? सफेद धन की ही बधिया रोज बैठ रही है।

     राष्ट्रीय संकट में फंसे इस देश की संसद का बर्ताव भी अजीब है। न तो सत्तापक्ष किसी जिम्मेदारी का परिचय दे रहा है और न ही विपक्ष। यदि बड़बोले प्रधानमंत्री ने दुम दबा रखी है तो विपक्ष भी डंडे बजाने के अलावा क्या कर रहा है? यह ठीक है कि विपक्ष जनता के दुख-दर्द को जोरों से उठा रहा है लेकिन वह ऐसे कोई ठोस सुझाव नहीं रख रहा है, जिससे जनता को जल्दी से जल्दी और ज्यादा से ज्यादा राहत मिले। काले धन, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के विरुद्ध नेता स्वयं अपने आचरण से जनता को कोई प्रेरणा नहीं दे रहे। सरकार न तो नेताओं के घरों पर छापे मारने की हिम्मत कर रही है और न ही नेता लोग अपना काला धन खुले-आम उजागर कर रहे हैं। काले धन और भ्रष्टाचार के मूल स्त्रोत हमारे नेतागण हैं। वे एक-दूसरे की टांग-खिंचाई करते हैं ताकि उनकी करतूत पर पर्दा पड़ा रहे।