कौन है गठबंधन तोड़ने वाले “खलनायक’ !

कौन नहीं चाहता था गठबंधन । महाराष्ट्र की सियासत में लाख टके का सवाल अब यही हो गया है । शिवसेना कयास लगा रही है कि बीजेपी की राज्य इकाई को यह संकेत दिल्ली से आया। बीजेपी कयास लगा रही है उट्टव ठाकरे की कोटरी जिसमें सबसे शक्तिसाली रश्मी ठाकरे हैं, उनका संकेत था । आरएसएस के भीतर कयास लग रहे हैं कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को उपर का संकेत था यानी प्रधानमंत्री मोदी से। अगर कयास सही है तो संकेत साफ है कि शिवसेना-बीजेपी का गठबंधन हर हाल में टूटना था और दोनो तरफ से सबसे प्रभावी या कहे ताकतवर लोग ही नहीं चाहते थे कि गठबंधन रहे। क्योंकि शिवसेना प्रमुख की पत्नी रश्मी ठाकरे मौजूदा वक्त में सबसे ताकतवर है और गठबंधन टूटने के बाद बीजेपी के भीतर से लगातार यही आवाज आ रही है कि उद्दव ठाकरे की राजनीतिक महत्वकांक्षा को उड़ान देने के लिये परिवार की ही वह कोटरी है जो शिवसेना के हर निर्णय को लेने में सक्षम है। इस कोटरी में कोई बाहरी शिवसैनिक नहीं है बल्कि ठाकरे परिवार के ही सदस्य है। और उद्दव ठाकरे का हर निर्णय इससे प्रभावित होता है।

 

इसीलिये जो ठाकरे परिवार हमेशा किंगमेकर की भूमिका में रहा वह पहली बार किंग बनने का खुला ऐलान करने से नहीं कतरा रहा है। कमोवेश बीजेपी के गठबंधन टूटने के बाद ठाकरे परिवार की इसी महत्वकांक्षा का जिक्र संघ परिवार से किया। चूंकि संघ परिवार नहीं चाहता था कि महाराष्ट्र में गठबंधन टूटे तो बीजेपी की तरफ से आरएसएस को जानकारी भी यही दी गयी ही मौजूदा वक्त में ठाकरे परिवार की बडी हुई महत्वाकांक्षा का चेहरा बालासाहेब ठाकरे से अलग है। बालासाहेब ठाकरे दूर की सोच कर निर्णय लेते थे। लेकिन मौजूदा ठाकरे परिवार सिर्फ तत्काल को देख रहा है और बीजेपी की ताकत जब शिवसेना से ना सिर्फ ज्यादा है बल्कि साथ लड़ने पर बीजेपी के वोट का लाभ ही शिवसेना को मिलेगा तो फिर बीजेपी अपनी ताकत का लाभ शिवसेना को क्यों पहुंचाये । वहीं ठाकरे परिवार के भीतर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को लेकर कहीं ज्यादा रार है। हालांकि चुनाव ऐलान से एन पहले अमित शाह मुबंई यात्रा के वक्त उद्दव ठाकरे से मिलने घर पर भी गये थे और बालासाहेब की समाधि पर पर भी गये थे।

 

लेकिन शिवसेना के साथ कितनी सीदो पर चुनाव लड़ना है, इस पर खुलकर कोई बातचीत करने की जगह तब भी सिर्फ इतना ही कहा था कि बीजेपी की राज्य इकाई से बातचीत के बात ही फैसला होगा। यानी दिल्ली के हर फैसले का आधार राज्य ईकाई की रिपोर्ट होगी इसका जिक्र तभी कर दिया गया था । लेकिन शिवसेना की मुश्किल दिल्ली में मोदी सरकार के आने के बाद कही ज्यादा तेजी से मुंबई में बढ़ी इसके संकेत शिवसेना के दादर दफ्तर के भीतर पार्टी के लिये मिलने वाले दान में आयी कमी या कहे वसूली से भी देखा गया। और इसकी वजह गुजरातियों का शिवसेना की जगह सीधे दिल्ली में मोदी सरकार से संपर्क साधना माना गया । ध्यान दें तो मुबंई में गुजरातियो के धंधे कहीं ज्यादा है। सूरत के हीरो के कारोबार का तो सबसे बडा बाजार ही मुबंई है, जहां हर डायमंड मर्चेट का दफ्तर है। और मुबंई से ही दुनिया भर में हीरों का व्यापार होता है। शिवसेना के साथ गुजराती व्यापारियों का लेन-देन  बालासाहेब ठाकरे के दौर का है। लेकिन दिल्ली में मोदी सरकार के आने के बाद अमित साह के बीजेपी अध्यक्ष बनते ही मुंबई के गुजरातियों का रास्ता भी बदला और गुजरात से मुबंई की दूरी झटके में दिल्ली की तुलना में ज्यादा हो गयी। शिवसेना के लिये यह सबसे बड़ा झटका माना गया। इसीलिये चुनाव से पहले ही सीएम पद पर दावेदारी टोकं कर उद्दव ने बीजेपी से दो दो हाथ करने का मन भी बनाया और पार्टी के भीतर इसके संकेत भी दिये कि महाराष्ट्र में सत्ता की लगाम तो ठाकरे परिवार के पास ही रहेगी।

 

तो फिर चुनाव के बाद सारे संकट निपट जायेंगे। वैसे भी उद्दव यह दांव ना खेलते तो शिवसेना की ताकत कम ही होती क्योकि पहली बार बालासाहेब ठाकरे की 50 बरस की सियासत पर मोदी मंत्र भारी है यह बीजेपी मान कर चल भी रही है और उसे भरोसा भी है कि महाराष्ट्र की राजनीति में उसके बिना शिवसेना हाशिये पर जा चुकी है। हालांकि एक सच यह भी है कि बालासाहेब ठाकरे ने कभी नरेन्द्र मोदी की तारीफ इस रुप में नहीं कि की वह पीएम बन सकते हैं। और जब बीजेपी के भीतर पीएम पद को लेकर संघर्ष चल भी रहा था तब बालासाहेब ने मोदी का नहीं सुषमा स्वराज का नाम लिया था। वैसे शिवसेना ही नहीं बल्कि बीजेपी के भीतर का एक बड़ा तबका मानता है कि प्रधानमंत्री मोदी कभी चाहते ही नहीं थे कि शिवसेना से गठबंधन रहे। क्योंकि लोकसभा जीत के बाद अपने बूते महाराष्ट्र जीता जा सकता है यह पाठ बीजेपी के भीतर दिल्ली से मुबंई तक बार बार पढ़ा गया। सवाल सिर्फ इस पाठ को परीक्षा में उतारने का था। और इसके लिये दिन वही चुना गया जब प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका रवाना हो जाये । इसलिये 25 सिंतबर की शाम 4 बजे प्रदानमंत्री मोदी के दिल्ली से  न्यूयार्क रवाना होने से ठीक दस मिनट पहले मुबंई में बीजेपी नेता खुलकर सामने आ गये और शिवसेना से गठबंधन टूटने के खुले संकेत दे दिये । हिन्दुत्व का राग अलापते अलापते महाराष्ट्र में बने इस गठबंधन के टूटने का खुला संकेत संघ परिवार के भीतर यही गया कि दिल्ली नहीं चाहता ता कि शिवसेना के साथ मिलकर चुनाव लडे तो गठबंधन टूट गया। हालांकि दिल्ली की थ्योरी में शिवसेना से मोदी या अमित शाह के ना पटने से कहीं ज्यादा जीत का पक्का भरोसा जताना रहा। राज्य ईकाई के आंकड़ों का जिक्र कर बीजेपी ने अपने बूते सवा सौ सौट जीतने का जिक्र किया। जिसमें विदर्भ की 62 में 45 सीटों, मराठवाडा की 47 में से 17 , उत्तर महाराषट्र की 47 सीटे में से 30 सीट, पश्चिम महाराष्ट्र की 58 में 17 और मुबंई की 36 में से 15 सीटें पर पक्की जीत का दावा किया गया। यानी आधार कही ना कही लोकसभा चुनाव की सफलता को ही रखा गया। खास बात यह भी है कि बीजेपी के इन आंकडों पर संघ के भीतर अब यह कसमसाहट है कि लोकसभा चुनाव के वक्त तो संघ का हर स्वयंसेवक वोट मांगने निकला था। राजनीतिक सक्रियता पैदा करने निकला था ।

 

लेकिन महाराष्ट्र चुनाव के वक्त तो संघ का कोई स्वयंसेवक नहीं निकलेगा तो खुद ही तय हो जायेगा कि बीजेपी का आधार है कितना मजबूत। वहीं गठबंधन टूटने के पीछे की वजहों की कयास में महाराष्ट्र की उस तिकड़ी का नाम भी है जो आधार वाले नेता हैं। पैसे वालों के बीच खासे लोकप्रिय हैं। और अपनी अपनी सियासत के घेरे में सबसे ताकतवर भी हैं। इनमें पहला नाम शरद पवार का है । जो कांग्रेस के किसी हालत में पनपने देना नहीं चाहते हैं। दूसरे राजठाकरे हैं । जो गठबंधन के दौर में हर सौदेबाजी के दायरे से बाहर हो जाते । और तीसरे नीतिन गडकरी है । जो महाराष्ट्र में बीजेपी के सबसे ताकतवर चेहरे हैं। लेकिन गठबंधन बरकरार रहता तो इनकी जरुरत किसी को ना होती । और संयोग ऐसा है कि यह तीनों के आपसी संबंध भी है । और तीनो चुनाव के बाद किसी भी सरकार को बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे। यह किसी से छुपा भी नहीं है। तो गठबंधन का टूटना अपनी अपनी बिसात पर खुद को प्यादे से वजीर बनाने या मानने की खूबसूरत कवायद से इतर कुछ भी नहीं। असल वजीर तो चुनावी के बाद की बिसात पर सरकार बनाने वाले की चाल से तय होगा। फिलहाल तो हर नजर में दूसरे को लेकर शक-शुबहा है।