कभी साजिश के तहत दिल्ली से गुजरात भेजे गये थे मोदी !

‘भागवत कथा’ के नायक मोदी यूं ही नहीं बने

 

क्या नरेन्द्र मोदी के विकास माडल के पीछे आरएसएस ही है। क्या आरएसएस के घटते जनाधार या समाज में घटते सरोकार ने मोदी के नाम पर संघ को दांव खेलने को मजबूर किया। क्या अटल-आडवाणी युग के बाद संघ के सामने यह संकट था कि वह बीजेपी को जनसंघ की तर्ज पर खत्म कर दें । और इसी मंथन में से मोदी का नाम झटके में सामने आ गया। क्या आरएसएस ने संघ परिवार के पर कतर कर मोदी को आगे बढाने का फैसला किया। यानी राजनीतिक तौर पर ही संघ परिवार का विस्तार हो सकता है यह देवरस के बाद पहली बार मोहन भागवत ने सोचा। यानी कांग्रेस के खिलाफ जेपी आंदोलन में जिस तरह संघ के स्वयंसेवकों की भागेदारी हुई उसी तरह मोदी के राजनीतिक मिशन को लेकर संघ के स्वयंसेवक देशभर में सक्रिय हो चले हैं। यह सारे सवाल ऐसे हैं, जो नरेन्द्र मोदी के हर राजनीतिक प्रयोग के सामने कमजोर पड़ती आरएसएस की विचारधारा या संघ के विस्तार के लिये मोदी की राजनीतिक ताकत का ही इस्तेमाल करने की जरुरत के साथ खडे हो गये है । और जिस बीजेपी में दिल्ली की सियासत से दूर करने की साजिश के तहत मोदी को अक्टूबर 2001 में गुजरात भेजा वही बीजेपी 12 बरस बाद मोदी के सामने ही छोटी हो गई । इतिहास के इन पन्नो को पलटे को कई सच नये तरीके से सामने आ जायेंगे।

 

दरअसल गांधीनगर सर्किट हाउस के कमरा नंबर 1 ए से गुजरात का सीएम पद को संभालने वाले नरेन्द्र मोदी अब जिस 7 आरसीआर की उड़ान भर रहे हैं, उसका नजारा चाहे आज सरसंघचालक मोहन भागवत की खुली ढील के जरीये नजर आ रहा हो। लेकिन इसकी पुख्ता शुरुआत 2007 में तब हो गई थी जब मोदी को हराने के लिये संघ परिवार का ही एक गुट हावी हो चला था। और उस वक्त मोदी को और किसी ने नहीं बल्कि सोनिया गांधी के मौत के सौदागर वाले बयान ने राजनीतिक आक्सीजन दे दिया था। सोनिया गांधी ने 2007 के चुनाव प्रचार में जैसे ही मौत के सौदागर के तौर पर मोदी को रखा वैसे ही मोदी ना सिर्फ कट्टर हिन्दुवादी और हिन्दु आइकन के तौर पर संघ की निगाहों में चढ़ गये बल्कि राजनीतिक तौर पर भी मोदी को जबरदस्त जीत मिल गयी। और मोदी को समझ में उसी वक्त आया कि 2002 में एचवी शेषाद्री ने उन्हें गुजरात को विकास के नये माडल पर खडा करने को क्यों कहा था। असल में मोदी को राजनीतिक उड़ान देने की शुरुआत भी बीजेपी और संघ से खट्टे-मीठे रिश्तों से हुई । जो बेहद दिलचस्प है । 2001 में प्रमोद महाजन ने राष्ट्रीय राजनीति से दूर करने के लिये नरेन्द्र मोदी को दिल्ली से गुजरात भेजने की बिसात बिछायी । और 23 फरवरी 2002 को राजकोट से उपचुनाव जीतने के बावजूद जिस नरेन्द्र मोदी को संघ परिवार में ही कोई तरजीह देने को तैयार नहीं था । 4 दिन बाद 27 फरवरी 2002 को गोधरा की घटना के बाद वही मोदी संघ परिवार की निगाहों में आ गये । लेकिन सरसंघचालक सुदर्शन भी उस वक्त दिल्ली के झंडेवालान से मोदी से ज्यादा विश्वहिन्दु परिषद और संघ के स्वयंसेवकों पर ही भरोसा किये हुये थे। क्रिया की प्रतिक्रिया का असल सच यह भी है कि मोदी कुछ भी समझ पाते उससे पहले संघ परिवार का खेल गुजरात की सड़कों पर शुरु हो चुका था। और मोदी दिल्ली को जवाब देने से ज्यादा कुछ कर नहीं पा रहे थे। लेकिन उसके तुरंत अक्टूबर 2002 में वाजपेयी के अयोध्या समाधान के रास्ते से विहिप को झटका लगा। वाजपेयी सुप्रीम कोर्ट के जरीये अयोध्या का रास्ता संघ के लिये बनाना चाहते थे लेकिन हुआ उल्टा। विहिप को अयोध्या की जमीन भी छोडनी पड़ी। संघ पहले ही आर्थिक नीतियों से लेकर उत्तर-पूर्व में संघ के स्वयंसेवकों पर हमले से नाराज था। अयोद्या की घटना के बाद तो उसने पूरी तरह खुद को अलग कर लिया। 2004 में संघ परिवार ने खुद को चुनाव से पूरी तरह दूर कर लिया । लेकिन इसी दौर में मोदी को आसरा एचवी शेषाद्रि ने लगातार दिया। मोदी को विकास माडल के तौर पर गुजरात को बनाने की सोच दी।

 

यह अजीबोगरीब संयोग है कि राजनीतिक तौर पर मोदी ने पटेल समुदाय के जिस केशुभाई और प्रवीण तोगडिया को निशाने पर लिया उसी पटेल समुदाय के युवाओं को ग्लोबल बिजनेस का सपना देकर मोदी ने अपने साथ कर लिया । असल में 2004 के चुनाव में आरएसएस ने जिस तरह की खामोशी बरती और एनडीए सरकार वाजपेयी-आडवाणी की अगुवाई में दोबारा सत्ता में आये इसे लेकर कोई रुची नहीं दिखायी। इसके बाद संघ के भीतर का एक घडा 2007 में मोदी को भी हराने में लग गया। आर्थिक नीतियों से लेकर राममंदिर तक के मुद्दे पर रुठे दत्तपंत ठेगडी से लेकर अशोक सिंघल और तब एमजी वैघ तक नहीं चाहते थे कि नरेन्द्र मोदी की वापसी सत्ता में हो । लेकिन पहले शेषाद्रि और उसके बाद 2007 में सरकार्यवाह मोहन भागवत ने ही नरेन्द्र मोदी को संभाला । मोहन भागवत ने मोदी के रास्ते के कांटों को अपने एक्सीक्यूटिव पावर के जरीये हटाया। उग्र पटेल गुट के प्रवीण तोगडिया को विश्व हिन्दु परिषद के अंतराष्ट्रीय माडल पर काम करने के लिये गुजरात से बाहर किया गया ।तो एमजी वैघ के बेटे मनमोहन वैघ को भी अखिल भारतीय स्तर पर काम देकर गुजरात से बाहर किया गया। दरअसल 2007 में सोनिया के मौत के सौदागर वाले बयान के बाद पहली बार मोहन भागवत ने ही इस हालात को पकड़ा कि मोदी का गुजरात माडल अगर गांधी परिवार को परेशान कर सकता है तो फिर मोदी के जरीये ही आरएसएस दिल्ली की राजनीति को भी साध सकता है। और इसी के बाद मोहन भागवत ने खुले तौर पर मोदी के हर प्रयोग को हवा देनी शुरु की ।

 

ध्यान दें तो 2012 में संघ परिवार में से सबसे पहले विहिप के उसी अशोक सिंघल ने मोदी को पीएम पद के लायक बताया जो 2007 से पहले मोदी का विरोध करते थे ।

 

दरअसल मोहन भागवत ने बतौर सह सरकार्यवाह अपने एक्जूक्टीव पावर का इस्तेमाल कर ना सिर्फ गुजरात को संघ परिवार की बंदिशो से मुक्त किया और 2009 में सरसंघ चालक बनते ही बीजेपी के काग्रेसीकरण से परेशान होकर मोदी को ही तैयार किया कि वह वाजपेयी-आडवाणी के हाथ से बीजेपी को निकालें। लेकिन 2009 में मोदी ने 2012 तक का वक्त मांगा जिससे गुजरात में जीत की हैट्रिक बनाकर दिल्ली जाये। इस दौर में आरएसएस का प्लान मोदी के लिये भविष्य का रास्ता बनाने लगा। संघ का प्लान सीधा था । दिल्ली में बीजेपी के काग्रसीकरण को रोकना जरुरी । वाजपेयी-आडवाणी युग को खत्म करना जरुरी है ।संघ को सक्रिय करने के लिये राजनीतिक मिशन से जोडना जरुरी । विकास माडल के जरीये दिल्ली की सत्ता की व्यूह रचना करना जरुरी । क्योंकि अयोध्या सामाजिक माडल था और उस प्रयोग से भी बीजेपी अपने बूते सत्ता तक पहुंच नहीं पायी थी। तो राजनीतिक मशक्कत करने के लिये एक चेहरा भी चाहिये था। सरसंघचालक भागवत का मानना रहा कि मोदी ही इसे अंजाम देने में सक्षम है ।

 

तो 2009 में सरसंघ चालक मोहन भागवत हर हाल में दिल्ली की बीजेपी चौकड़ी को ठिकाना लगाना चाहते थे और नरेन्द्र मोदी 2012 से पहले गुजरात छोड़ना नहीं चाहते थे तो नीतिन गडकरी की बतौर बीजेपी अध्यक्ष इन्ट्री कराकर आरएसएस ने पहला निशाना आडवाणी के दिल्ली सामाज्य पर साधा । उसके बाद मोहन भागवत ने मोदी के विकास माडल को ही बीजेपी के भविष्य की राजनीति को साधने के लिये संघ परिवार के भीतर ही राजनीतिक प्रयोग करने शुरु कर दिये । सबसे पहले अय़ोध्या में राम मंदिर को लेकर सक्रिय विश्व हिन्दु परिषद को ठंडा करने के विहिप को संघ प्रचारक देना ही बंद कर दिया। इसके सामानांतर धर्म जागरण का निर्माण किया । धर्म जागरण के जरीये संघ के उन कार्यो को अंजाम देना शुरु किया जो पहले विहिप करता था ।यानी संघ के प्रचारक जो अलग अलग संघ के सहयोगी संगठनों में काम करते थे। वह प्रचारक विहिप के बदले धर्म जागरण में जाने लगें । जिससे मोदी के घुर विरोधी प्रवीण तोगडिया की शक्ति भी खत्म हो गयी और वह विहिप के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष बने भी रहे। इसी तर्ज पर किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ ,आदिवासी कल्याण संघ

 

सरीखे एक दर्जन से ज्यादा संगठनो को नरेन्द्र मोदी के विकास माडल के अनुसार काम करने पर ही लगाया गया। इतना ही नहीं पहली बार आरएसएस ने स्वय़ंसेवकों को खुले तौर पर राजनीतिक तौर पर सक्रिय करने का दांव भी खेला। और संजय जोशी को दरकिनार करने के लिये मोदी ने जो बिसात बिछायी उस पर आंखे भी संघ ने मूंद ली। जबकि संजय जोशी खुद नागपुर के हैं। बावजूद इसके आरएसएस ने संजय जोशी को खामोश करने के लिये मोदी को ढील भी दी और स्वयंसेवकों को संदेश भी दिया कि मोदी की राजनीतिक बिसात में कोई कांटे ना बोयें। सरसहकार्यवाहक भैयाजी जोशी ने चुनाव के साल भर पहले से ही खुले तौर पर कमोवेश हर मंच पर यह कहना शुरु कर दिया कि हिन्दु वोटरों को घर से वोट डालने के लिये इस बार चुनाव में निकालना जरुरी है क्योंकि बिना उनकी सक्रियता के सत्ता मिल नहीं सकती । और इसे खुले तौर पर बीते 10 अप्रैल को नागपुर में बीजेपी उम्मीदवार गडकरी को वोट डालने निकले सरसंघचालक और सरसहकार्यवाहर कैमरे के सामने यह कहने से नहीं चुके इस बार बडी तादाद में वोट पडंगें । क्योकि परिवर्तन की हवा है । तो मोदी के जरीये परिवर्तन की लहर का सपना आरएसएस ने पहले बीजेपी में फिर संघ परिवार में और उसके बाद देश में देखा था । लेकिन जिस तेजी से संघ की चौसर को अपनी बिसात में मोदी ने बदला है उसके बाद आरएसएस भी मान रहा है कि परिवर्तन देश की राजनीतिक सत्ता में पहले होगा और उसके बाद बीजेपी और संघ परिवार भी बदल जायेगा ।