इस्लामी एकता का प्रहसन

इस्लामी सम्मेलन संगठन (ओ आई सी) में 57 राष्ट्र हैं| 57 राष्ट्र जिस अन्तरराष्ट्रीय संगठन के सदस्य हों, वह क्या नहीं कर सकता ? संयुक्तराष्ट्र संघ के बाद उसे सबसे अधिक शक्तिशाली मंच होना चाहिए था लेकिन पिछले 34 साल में वह चूं-चूं का मुरब्बा बनकर रह गया| दुनिया के मुसलमानों की जिन्दगी में अगर संगठन ज़रा-सा भी उजाला कर पाता तो आज उसकी आवाज इस्लामी जगत के बाहर भी बड़े आदर से सुनी जाती लेकिन अपने 10वें शिखर सम्मेलन में इसने कश्मीर पर जो प्रस्ताव पारित किया, उसे भारतीय प्रवक्ता ने बहुत ही हल्का बताकर कूड़ेदान के हवाले कर दिया| भारत ही क्यों, दुनिया के अन्य राष्ट्र भी, जिनके विरुद्घ यह सम्मेलन इस तरह के प्रस्ताव पारित करता है, इसे हिकारतभरी नज़र से देखते हैं|

जहॉं तक कश्मीर का सवाल है, इस संस्था ने सबसे पहले अगस्त 1990 के काहिरा के विदेशमंत्री सम्मेलन में भारत के विरुद्घ प्रस्ताव पारित किया था| उसके पहले लगभग 21 साल तक इस सम्मेलन ने कश्मीर पर अपनी जुबान नहीं चलाई, हालॉंकि हर सम्मेलन में पाकिस्तान कश्मीर को घसीटता था| असलियत तो यह है कि इस्लामी सम्मेलन की स्थापना सितम्बर 1969 में इसलिए हुई थी कि अगस्त में अल-अक़्सा मस्जिद पर हुए हमले से सारा इस्लामी जगत थर्रा उठा था| यरूशलम में स्थित इस मस्जिद को मक्का और मदीना के बाद सबसे पवित्र तीर्थ माना जाता है| ज़ायनवादियों के कब्जे से यरूशलम को मुक्त करवाने के लिए 25 इस्लामी राष्ट्रों ने मोरक्को की राजधानी रबात में एक सम्मेलन किया था| सम्मेलन के पहले दिन से ही पाकिस्तान ने इस संगठन को अपनी विदेश नीति का मोहरा बनाना शुरू कर दिया था| पाकिस्तान के तत्कालीन तानाशाह याह्रया खान ने इस बात पर पूरा जोर लगा दिया कि इस सम्मेलन में भारत किसी भी रूप में भाग न ले| हमारे प्रतिनिधि श्री फखरूद्दीन अली अहमद को पर्यवेक्षक के तौर पर भी अन्दर नहीं घुसने दिया गया जबकि फिलीपीन्स और रूस जैसे ईसाई और अर्ध-काफिर राष्ट्रों के नेता इस सम्मेलन में पर्यवेक्षक के तौर पर ससम्मान आमंत्रित किए जाते हैं| वे भाषण भी देते हैं और सम्मेलन की नीतियों को भी प्रभावित करते हैं| फिलीपीन्स और रूस जैसे देशों में कितने मुसलमान हैं ? भारत की तुलना में उनकी संख्या नगण्य है| उनकी हालत क्या है ? फिलीपीन्स के मोरो मुसलमान निरन्तर विद्रोह की स्थिति में हैं और रूस के मुसलमानों को नमाज़ तक पढ़ना नहीं आती|

वास्तव में भारत में जितने मुसलमान रहते हैं, उतने इस्लामी सम्मेलन के 25-30 देशों में भी कुल मिलाकर नहीं रहते| फिर भी भारत न तो इस सम्मेलन का सदस्य बनना चाहता है और न ही उसने पर्यवेक्षक बनने के लिए कोई अर्जी लगाई है| सच पूछा जाए तो पंथ-निरपेक्ष भारत अगर इस संगठन का सदस्य बनेगा तो उसकी बड़ी बदनामी होगी| मज़हब के नाम पर राजनीति चलाना अपने आप में घटिया बात है और अन्तरराष्ट्रीय राजनीति चलाना तो घटिया होने के साथ-साथ अव्यावहारिक भी है| इतनी अव्यवहारिक है कि पिछले 34 साल में यह संगठन 34 कदम भी आगे नहीं बढ़ सका है| यह केवल कागजी गोले दागता रहता है, जिन्हें उछलता देख दुनिया हॅंसती रहती है| कश्मीर में आत्म-निर्णय की बात इसी तरह का कागजी गोला है| पहले तो पूरे पाकिस्तान में ही आत्म-निर्णय याने जनमत-संग्रह की जरूरत है और उसके बाद मलेशिया और इंडोनेशिया तथा कुछ हद तक तुर्की जैसे राष्ट्रों के अलावा सभी इस्लामी राष्ट्रों में आम जनता को उसके मौलिक अधिकार दिए जाने चाहिए| शाहों, सुल्तानों, बादशाहों, सैनिक तानाशाहों और मुल्लाओं के द्वारा रौंदे जा रहे दुनिया के सवा अरब मुसलमानों की मुक्ति के लिए इस्लामी सम्मेलन ने कभी कोई गुहार क्यों नहीं लगाई ? छठी-सातवीं सदी के पोंगापंथी इस्लामी कानूनों में सुधार के लिए इस तथाकथित विश्व इस्लामी संस्था ने कोई पहल क्यों नहीं की ? शुरू के कुछ वर्ष तक वह यरूशलम की मुक्ति और फलस्तीन संबंधी आठ-दस प्रस्ताव पारित किया करता था, अब वह लगभग डेढ़-सौ प्रस्ताव पारित करता है, जिनमें कश्मीर, साइप्रस, मोरो, सर्बिया-मुसलमान, एराक, अफगानिस्तान आदि कई विषय होते हैं| इन प्रस्तावों की कोई क़ीमत नहीं है| प्रभावशाली सदस्य-राष्ट्र अपने-अपने विरोधी राष्ट्रों के विरुद्घ प्रस्ताव पारित करवा लेते हैं| उन्हें कोई ध्यान से पढ़ता तक नहीं| जिस जायनवाद के अतिक्रमण के विरुद्घ यह सम्मेलन शुरू हुआ था, उसके महानतम नायक यासर अराफात अपने राजधानी-क्षेत्र रमल्ला में कैद हैं| वे इतने आजाद भी नहीं कि 10वें सम्मेलन में भाग लेने पुत्रजय पहॅुंच सकें|

इस्लामी सम्मेलन की दुविधा यह है कि उसके सदस्य-राष्ट्र भी उसके प्रति निष्ठावान नहीं हैं| जिस इस्राइल के विरुद्घ निरन्तर प्रस्ताव पारित होते हैं, मिस्र और जोर्डन जैसे राष्ट्रों ने उसके साथ राजनयिक संबंध स्थापित कर रखे हैं| अनेक मुस्लिम राष्ट्रों का उसके साथ खुला और छिपा हुआ व्यापारिक संबंध बना हुआ है| एराक़ और ईरान इस्राइल से बराबर हथियार खरीदते रहे हैं| जब से भारत-इस्राइल संबंधों में घनिष्ठता बढ़ी है, पाकिस्तान भी लार टपकाने  लगा है| जनरल मुशर्रफ इस्राइल के विरुद्घ जाहिरा तौर पर कितना ही ज़हर उगलें, उन्होंने राजनयिक संबंधों की चौपड़ खुफिया तौर पर बिछानी शुरू कर दी है| मलेशियाई नेता महाथिर मुहम्मद ने अपने भाषण में इस्राइल और यहूदियों को काफी खरा-खोटा कहा लेकिन उनके संरक्षक अमेरिका तथा कुछ अन्य गोरे राष्ट्रों ने कड़ी प्रतिकि्रया की तो वे माफी मॉंगने पर उतारू हो गए| सच्चाई तो यह है कि इस्लामी देशों के इस संगठन का इस्तेमाल अब से 35 साल पहले अमेरिका अपने हित-साधन के लिए कर रहा था| ब्रेझनेव के एशियाई सामूहिक सुरक्षा के सिद्घान्त के मुकाबले उसे इस्लामी सामूहिक रक्षा का यह शानदार कवच उभरता हुआ दिखाई पड़ रहा था लेकिन कैसा विचित्र संयोग है कि अब रूस के नेता ब्लादिमीर पूतिन इस इस्लामी सम्मेलन के खासमखास मेहमान थे| कहीं पूतिन को पाकिस्तान के इशारे पर ही तो नहीं लाया गया था ? मुशर्रफ ने पुत्रजय में कहा भी है कि अटलजी जब अगले माह मास्को जाऍंगे तो पूतिन उन्हें समझाऍंगे|

दुनिया के नामी-गिरामी राष्ट्राध्यक्षों की भीड़ जमा करना और दो-तीन दिन तक खबरों का ज्वार उठाए रखना किस काम का है ? इस्लामी सम्मेलन ने दुनिया के मुसलमानों का क्या भला किया है ? अमेरिका ने एराक़ और अफगानिस्तान पर कब्जा किया तो सम्मेलन की बोलती क्यों बंद हो गई ? तालिबान के प्रति उसकी बड़ी सहानुभूति थी| वह अमेरिका के खिलाफ़ कुछ बोलता तो मालूम पड़ता कि उसके मुॅंह में दॉंत और पंजों में नाखून हैं| ईरान-एराक़ युद्घ में भी उसकी भूमिका नगण्य रही| अब भी अमेरिका के विरुद्घ कुछ भी बोलने में वह हकलाने लगता है| वह एराक़ से विदेशी फौजों की वापसी की मॉंग कर रहा है लेकिन उसी के तीन महत्वपूर्ण सदस्यों की भूमि का इस्तेमाल करके अमेरिकी फौजें बगदाद में घुसी थीं| वह अफगानिस्तान की मदद के लिए दुनिया के सामने हाथ फैला रहा है| उसे शर्म नहीं आती ? अरबों डॉलर अपनी अय्रयाशी में खर्च करनेवाले देश अपने साथी मुस्लिम देश की सहायता के लिए अपनी अण्टी ढीली नहीं करना चाहते| इस्लामी देशों का यह बर्ताव अफगानों के साथ ही नहीं है, फलस्तीनियों के साथ भी है| इसीलिए 1991 के छठे इस्लामी शिखर सम्मेलन से यासर अराफात इतने क्रुद्घ हुए कि हॉल छोड़कर बाहर चले गए| वास्तव में कश्मीर और फलस्तीन का इस्लाम से नाम-मात्र का संबंध है| कश्मीरी कश्मीरियत के लिए लड़ रहे हैं, इस्लाम के लिए नहीं और फलस्तीनी फलस्तीन के लिए लड़ रहे हैं, इस्लाम के लिए नहीं| लेकिन इस्लामी सम्मेलन के चतुर नेताओं ने इन दोनों मुद्रदों पर इस्लाम की चाशनी चढ़ा दी है|

इस्लामी सम्मेलन की अवधारणा ही अपने आप मे विचित्र है| इसे ‘इस्लामी उम्मा’ के आधार पर खड़़ा किया गया है| क्या यह ‘उम्मा’ एक परिवार है ? क्या दुनिया के सारे मुसलमान एक हैं| क्या कार्ल मार्क्स के ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ नारे की तरह दुनिया के मुसलमानों को भी एक किया जा सकता है ? विश्व मुस्लिम एकता अत्यधिक भ्रामक धारणा है| सबसे पहले तो शिया और सुन्नी लोगों की तलवारें एक-दूसरे पर खिंची हुई हैं| शिया और सुन्नी लोगों के बीच जितनी कटुता है, उतनी भारत के शैव और वैष्णवों तथा यूरोप के केथलिक और प्रोटेस्टेंटों के बीच भी नहीं है| लगभग दस वर्ष तक चला एराक-ईरान युद्घ इसका ठोस प्रमाण है| दूसरा, दुनिया के लगभग 65 देशों में फैले मुसलमानों की अपनी-अपनी सुदृढ़ राष्ट्रीय अस्मिताऍं, परम्पराऍं, भाषाऍं, विधि-विधान और हित-अहित हैं| उन्हें इस्लाम की बोतल में बंद नहीं किया जा सकता| इस्लाम सिर्फ 1400 साल पुराना है, जबकि ये समाज हजारों वर्षों से चले आ रहे हैं| इन्हें एक ही डंडे से हॉंकना असंभव है| तीसरा, 57 इस्लामी देशों के अंदर ही भयंकर आर्थिक और सामाजिक विषमता है| कुछ देश ऐसे हैं, जिनमें 65 प्रतिशत तक साक्षरता है और कुछ में केवल दो प्रतिशत ! कुछ देश ऐसे हैं, जिनकी प्रति व्यक्ति आय गोरे देशों  से भी ज्यादा है और कुछ ऐसे हैं, जिन्हें दुनिया के सबसे गरीब देशों की की श्रेणी में रखा जा सकता है| ज्यादातर इस्लामी देश नंगे-भूखे हैं और जो मालदार हैं, वे भी तेल, गैस या किसी अन्य खनिज के दम पर हैं| वे अपने सहधर्मी गरीब देशों को टुकड़ा तो डाल सकते हैं लेकिन उनकी कोई ठोस सहायता नहीं कर सकते ताकि वे अपने पॉंवों पर खड़े हो सकें| ऐसी स्थिति में इस्लामी सम्मेलन किस एकता की बात कर रहा है ? 57 इस्लामी राष्ट्रों का अभी तो आपस में व्यापार और आर्थिक सहायता का भी कोई ठोस सिलसिला नहीं है| पहले वे कोई साझा बाजार तो खड़ा करें ! इस्लाम के नाम पर भाषण तो झाड़े जा सकते हैं लेकिन सवा अरब मुसलमानों का पेट भी भरा जा सकता है या नहीं ? चौथा, इस्लामी एकता का नारा अन्तरराष्ट्रीय मंच से इसलिए भी हास्यास्पद लगता है कि अधिकतर इस्लामी राष्ट्रों में मुसलमान  बुरी तरह बॅंटे हुए हैं| यदि ऐसा नहीं होता तो 1971 में पाकिस्तान क्यों टूटता और अब भी वहॉं पंजाबी, सिंधी, पठान और बलूच होने का भाव सर्वोपरि क्यों है ? क्या वजह है कि लंबे समय तक  अफगान राजनीति पठान और ताजिक समुदायों का फुटबाल बनी रही ? एराक़ के शिया और सुन्नी अब तक एक-दूसरे की टॉंग क्यों खींच रहे हैं? इस्लाम इन सब मतभेदों को रफ़ा-दफ़ा करने में असमर्थ क्यों है ? वास्तविकता तो यह है कि इन मामलों से मज़हब का कोई वास्ता नहीं है| अल्लाह और बंदे के बीच की पवित्र चीज़ को आप खींचकर चौराहे पर नचवाऍंगे तो वह प्रहसन के अलावा क्या सिद्घ होगी ?