इरादे हों यदि नेक तो मंजिल खुद मिलती है

कर्म ने मोड़ दिया जिंदगी का रुख

जैबुनेशाप्रेरणा लेकर इंसान अपनी तकदीर संवार सकता है। इस बात को जैबुनेशा से बेहतर कोई नहीं बयां कर सकता है। टीवी से प्रेरणा लेकर फर्श-से-अर्श तक पहुंचने की कहानी बिल्कुल फिल्मी लगती है, लेकिन है बिल्कुल सच। एक छोटी से पहल और आगे बढ़ने की जिद से जैबुनेशा ने वह मुकाम हासिल किया है, जिसे देख, सुन कर क्षेत्र के लोग उनके जुनून को सलाम करते हैं।

उनकी मेहनत की कायल महिलाएं जैबुनेशा के दिखाए राह पर चल कर अपने साथ इलाके की भी तकदीर बदल रही हैं। गोपालगंज जिले के कुचायकोट प्रखंड अंतर्गत बनकट पंचायत में आने वाले बरनइया गोखुल गांव की निवासी जैबुनेशा ने इस बात को साबित कर दिया है कि जिद से जहान को बदला जा सकता है।

छोटी-सी प्रेरणा बड़ी शुरुआत

अपने काम के बारे में बताते हुए जैबुनेशा कहती हैं, एक बार किसी काम से वह दिल्ली गई थी। वहां टीवी चल रहा था। उसमें केरल के किसी गांव में महिलाओं के द्वारा संचालित होने वाले स्वयं सहायता समूह के बारे में बताया जा रहा था। जिसे देखने के बाद इन्होंने अपने क्षेत्र में भी ऐसी महिलाओं के साथ स्वयं सहायता समूह बनाने की बात सोची।

वापस आने के बाद उन्होंने गांव के ही कुछ महिलाओं को इसके तरह की योजना के बारे में बताया। यह सन् 1999 की बात है। तब पूरे इलाके में महिला स्वयं सहायता समूह क्या होता है? इसके बारे में कोई कुछ भी नहीं जानता था।

धीरे – धीरे आई समझ

जैबुनेशा कहती हैं, जब इस तरह की योजना को मैंने बताया तब कोई मेरी बातों पर यकीन ही नहीं कर रहा था। बात रुपए पैसे को लेकर थी, तो कोई बात सुनने को भी तैयार नहीं थी। मैंने अपना काम जारी रखा। इन महिलाओं का सबसे पहले सवाल यही होता था कि इसके लिए पैसे कहां से आएंगे? क्योंकि मेरे साथ इन सभी की हालत ऐसी नहीं थी कि वह 10 रुपये प्रति सप्ताह समूह के नाम पर जमा कर सके।

हमने इसके लिए एक और रास्ता निकाला। हमने यह तय किया कि प्रत्येक घर से एक मुट्ठा चावल समूह में सहयोग के नाम से एकत्र किया जाएगा। उसकी बिक्री से जो पैसे एकत्र होंगे, उसे समूह के नाम पर जमा कर देंगे। हमारा यह प्रयास सफल रहा। इसके बाद महिलाओं ने 10 – 10 रुपए जमा करना शुरू किया। समूह को जब और मजबूती मिली तो इस राशि को बढ़ा कर 20 रुपए कर दिया गया।

नए सफर पर निकलीं

जैबुनेशा कहती हैं, जिंदगी के जितने रंग मैंने देखे हैं, अगर कोई और महिला होती तो शायद वह इतने संघर्ष को नहीं कर पाती लेकिन मैं हिम्मत नहीं हारी। वो दिन जब मेरे पास पैसे नहीं होते थे, उसे याद कर कर के मैंने उन दिनों में भी अपने पिछले जीवन को याद रखा, जब मेरे पास कुछ पैसे की आमदनी होने लगी। खेती तो मैं शुरू से ही करती थी। जब आमदनी हुई तो कुछ मवेशी को खरीदा, उससे दूध का व्यापार करने लगी। पहले तो गांव में ही बेचती थी, जब दूध की मात्रा बढ़ने लगी तो उसे डेयरी को भी आपूर्ति करने लगी।

घर तक पहुंची ‘सरकार’

जिंदगी में अगर आगे बढ़ना है तो, कड़ी मेहनत के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है। मैंने इसी बात की गांठ बांध ली थी। एक दिन जिला मुख्यालय से खबर मिली कि डीएम और डीडीसी मुझसे मिलना चाहते हैं। उन्होंने मुझे बुलाया और मैंने किस तरह से मेहनत कर के इतनी महिलाओं को सबल बनाने के लिए कार्य किया है? इसकी पूरी जानकारी ली। सभी अधिकारियों ने मेहनत को सराहा और हर सहायता देने की बात कही। वह कहती हैं, डीएम ने तो कहा कि ‘हम आपके घर आएंगे और आपने जो पहल की है, उसे देखेंगे’।

वह कहती हैं, जिस दिन डीएम को मेरे घर आना था, उस दिन पूरा गांव उनके दरवाजे पर एकत्र था। डीएम उनके यहां आने के लिए आॅफिस से निकले भी लेकिन इसी बीच में किसी महत्वपूर्ण कार्य से उनको वापस जिला मुख्यालय जाना पड़ा। फिर वहां से उनका तबादला हो गया।

गांव से ‘कैलेंडर’ तक जैबुनेशा की मेहनत को सम्मान देते हुए बिहार सरकार ने उनका चयन अपने कैलेंडर के लिए किया। वह कहती हैं, मुझे इस बात की कोई जानकारी ही नहीं थी कि यह ‘कैलेंडर’ क्या होता है? गोपालगंज से कई अधिकारी आए थे, उन्होंने ही बताया कि मेरे काम की खबर मिलने पर सरकार ने कैलेंडर के चित्र के लिए उनका चयन किया है। बिहार कैलेंडर के लिए चयनित होने वाली वह सूबे की एकमात्र महिला थी।

महिलाओं को दिखाई राह

समूह की महिलाओं के अंदर आत्मविश्वास की लौ जगाने के बाद जैबुनेशा आधी आबादी को आगे बढ़ाने के लिए और भी पहल कर रही हैं। कहती हैं, तबियत खराब होने पर भी समूह से पैसे की मदद की जाती है। प्रयास यही रहता है कि महिलाएं ज्यादा से ज्यादा काम करे, कुछ नया करने को सीखें।

अपने माली हालत में सुधार होने की बात बताते हुए उनका कहना है, एक गाय खरीदी है और दो को बंटाई पर लिया है। अब दुकान, खेती और डेयरी को विस्तारित करने की योजना है। बकरी पालन के लिए क्या करना होगा? सरकारी स्तर से क्या मदद मिलती है? इसकी भी जानकारी ले रही हूं। वह कहती हैं, मेरे मेहनत पर किसी को यकीन नहीं होता था। अब जब लोग दूसरों को मेरा मिसाल देते हैं, तो अच्छा लगता है।

उम्र को दी मात

वह कहती हैं, ट्रैक्टर तो खरीद लिया गया था लेकिन उसका उपयोग कैसे हो? इसे लेकर बराबर दिक्कत आती थी। फिर मैंने कुछ नया करने को सोचा। ट्रैक्टर चलता कैसे है? इसे जानने समझने लगी। इस बात का भी अंदाजा था कि अगर ट्रैक्टर से जुताई होगी तो समय और पैसा दोनों की बचत होगी।

इसे चलाने को लेकर जब थोड़ी जानकारी हुई तब मैंने खुद ट्रैक्टर चलाने का फैसला किया और इस उम्र में ट्रैक्टर की स्टीयरिंग को संभाला। पहली बार जब ट्रैक्टर लेकर खेत में गई, तो लोगों के बीच कौतूहल हो गया, लेकिन मैंने किसी भी बात पर ध्यान नहीं दिया। रोज थोड़ी-थोड़ी देर ट्रैक्टर चलाती थी। जब पूरी तरह से निपुण हो गई तब खेत में उतरी और खुद ही जमीन को जोतने लगी।

वह कहती हैं, इसके पहले हल बैल से ही जुताई करती थी। जब ट्रैक्टर पर बैठी तो लोग अचंभित हो गए। वह यह भी कहती हैं, हम इतने गरीब थे कि घर का खर्च चलाने के लिए र्इंट भट्ठे पर कच्ची र्इंट बनाने का काम भी किए हैं। समूह की महिलाओं की संख्या की बढ़ोतरी पर वो कहती हैं, इन सारे कार्यों को करते रहने के दौरान महिलाओं की संख्या भी बढ़ती गई। तब तक हमारी मेहनत की खबर भी फैलने लगी थी कि कैसे महिलाओं का समूह बिना किसी सहायता के तरक्की कर रहा है।

सभी महिलाओं ने ट्रैक्टर के लिए जो ऋण लिया था, उसे ब्याज समेत बैंक को वापस भी कर दिया। इसी बीच में प्रखंड से एक खबर मिली कि हमारी मेहनत को देखते हुए एक दुकान भी हमारे नाम पर निर्गत कर दी गई ताकि हम सभी वहां रोजगार कर सके।

इरादे को दी मजबूती

जैबुनेशा कहती हैं, मेरा मायका जितना गरीब था, ससुराल भी उतना ही गरीब। पति दूसरे राज्य में काम करते थे। थोड़ी बहुत जमीन थी, जिसमें काम करके किसी तरह घर के लिए अनाज का जुगाड़ हो पाता था। गरीबी का आलम यह था कि पैसे के अभाव में बच्चों की पढ़ाई भी पूरी नहीं हो सकी। दो बेटे और दो बेटियां हैं। दोनों लड़कों ने महज आठवीं तक की शिक्षा ग्रहण की। एक बेटी ने स्कूल का मुंह तक नहीं देखा। वह कहती हैं, जब समूह के जरिए कुछ रुपए आने लगे, तब दूसरी बेटी को पढ़ने भेजना संभव हो सका। उसने इंटर की परीक्षा फस्ट डिविजिन से पास की है।

रखी मजबूत जज्बे की नींव

जैबुनेशा बताती हैं, महिलाओं का जब साथ मिला तब हमने सबसे पहले पट्टे पर खेत लेकर खेती शुरू की। इससे कुछ लाभ मिला। इससे हमारा हौसला बढ़ा। फिर हमने सत्तू और मसाला बनाने का काम शुरू किया। इसमें कुछ खास लाभ नहीं मिला। बावजूद हमलोग काम करते रहे। खेती वाली जमीन के साथ हम सभी को जुताई को लेकर बहुत दिक्कत होती थी। हम सभी ने एक ट्रैक्टर लेने की सोची।

सन् 2006 में कर्ज के लिए आवेदन दिया। दो लाख बीस हजार रुपए का कर्ज मिला। उससे हमने एक पुराना ट्रैक्टर खरीदा। यहीं से आगे की राह मिली।

Source:  पंचायतनामा, 28 जुलाई – 3 अगस्त, 2014, पटना