आपातकाल की पुरानी स्मृतियाँ

आपातकाल की घोषणा २५ जून १९७५ को हुई थी । रेडियो पर ख़बर आई होगी । मैंने तो नहीं सुनी थी लेकिन सतीश ने सुन ली थी । मैं उन दिनों भारतीय जनसंघ का ज़िला स्तर का अधिकारी था । सतीश के पास भी मंडल स्तर की कोई ज़िम्मेदारी थी । जयप्रकाश नारायण ने सरकार के ख़िलाफ़ देश भर में आन्दोलन छेड़ा हुआ था । उसमें उस समय के भारतीय जनसंघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की ही ज़बरदस्त भागीदारी थी । उसी समय इलाहाबाद उच्चन्यायालय ने उस समय की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गान्धी का चुनाव भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते रद्द कर दिया ।  इन्दिरा गान्धी ने उच्च न्यायालय के इस प्रश्न का जबाव देश में आपात स्थिति की घोषणा से दिया । ख़ैर सतीश ने ही मुझे आकर बताया कि आपात काल की घोषणा हो गई है । लेकिन इसका क्या अर्थ है , इसका आभास न मुझे हुआ और न ही उसे ।

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बंगा के समीप मुकन्दपुर छोटा सा गाँव है । आपात स्थिति का विरोध करना जरुरी है , इसके लिये पार्टी के निर्देश की प्रतीक्षा की जरुरत नहीं थी । । विरोध करने का हमने अपने गाँव में एक तरीक़ा विकसित कर रखा था । गाँव में लाला हरिदेव केसर मंडल कांग्रेस के प्रधान थे । बाज़ार में उनकी कपड़े की दुकान थी । हम सब इक्कठे होकर उनकी दुकान के सामने कुछ समय के लिये प्रदर्शन और भाषणबाज़ी करते थे । मैंने २५ जून की रात्रि को ही कार्यकर्ताओं को बता दिया कि प्रदर्शन के बारे में गाँव की दीवारों पर चाक से नारे लिख दिये जायें । २६ जून को दस बजे प्रदर्शन निश्चित हो गया । लेकिन सुबह होते होते मुझे आपात स्थिति क्या है ,इसका कुछ कुछ अन्दाज़ा भी हो गया था । रेडियो ख़बरें दे रहा था कि जयप्रकाश समेत सभी प्रमुख विरोध नेता पकड़ लिये गये हैं । जयप्रकाश नारायण को भी कोई पकड़ कर जेल में डाल सकता है , ऐसा उस समय हम सोच भी नहीं सकते थे । लेकिन प्रदर्शन की घोषणा तो हो चुकी थी ।

हरिदेव की दुकान के आगे प्रदर्शन हुआ । मैंने भाषण दिया । आधे घंटे में रैली ख़त्म हो गई । शायद आपातकाल का क्या अर्थ है , इसका अन्दाज़ा हरिदेव केसर को भी नहीं था । लेकिन लगभग दो घंटे बाद हरिदेव ने मुझे संदेश भेजकर घर से बुलवाया और बताया कि बंगा थाना से संदेश आया है कि पुलिस मुझे गिरफ़्तार करने के लिये आ रही है । आपातकाल में सरकार के ख़िलाफ़ बोलना भी गुनाह की श्रेणी में आ गया था । मेरे सामने समस्या खड़ी हो गई कि मैं कहाँ जाऊँ ? हमारे गाँव का ही एक लड़का सुभाष पाराशर दिल्ली अपनी मासी के पास कुछ दिनों के लिये गया हुआ था । मैंने उनके घर से उसका पता लिया । लेकिन दिल्ली जाने के लिये पैसे भी तो चाहिये थे । मैंने हरिदेव केसर से ही दो सौ रुपया उधार लिया और पुलिस के आने से पहले ही दिल्ली के लिये रवाना हो गया ।

आपात स्थिति का क्या अर्थ है , यह सबसे पहले दिल्ली आकर ही पता चला । उनदिनों दिल्ली आना यानि साँप के मुँह में हाथ डालना था । सुभाष की मासी का घर शायद सरोजिनी नगर  या ऐसे ही किसी स्थान के कूचों में था । दो तीन दिन बाद ही सुभाष को चिन्ता होने लगी । क्योंकि किसी घर में कौन नया मेहमान आया है , ऐसी सूचना पुलिस अपने माध्यमों से पता कर रही थी और फिर नये मेहमान की पूरी जन्मपत्री की छानबीन की जाती थी । गृहपति मेहमाननवाज़ी करता करता किसी संकट में न फँस जाये , यह सोच कर मैं और सुभाष दोनों ही वहाँ से रुखसत हो लिये । दिल्ली सचमुच एक बहुत बड़ी जेल में तब्दील हो चुका था । अलबत्ता इसका इतना असर जरुर हुआ था कि हमारे गाँव में भी चाय बेचने वाले ने चाय का कप आठ आने का कर दिया था ।

बाद की कहानी लम्बी है । जल्दी ही राष्ट्रीयस्वयं सेवक संघ ने आपातकाल के विरोध में सत्याग्रह शुरु कर दिया था । मैं , हरीश कुमार और सतीश कुमार तीनों ही डी ए वी कालिज जालन्धर के आगे सत्याग्रह करते हुये गिरफ़्तार हो गये । पुलिस कोतवाली ले गई और थाने में हवालात का क्या अर्थ होता है , यह कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है । हमने सर्दियों में सत्याग्रह किया था और हवालात  में गर्मी हो या सर्दी दरवाज़ा नहीं होता , खुली सलाखें होती हैं । कई दिन का मलमूत्र वहीं जमा रहता है । रात को सर्दी में क्या हालत होती होगी , अन्दाज़ा लगाया जा सकता है । उसके बाद जालन्धर जेल में और कुछ दिन बाद फ़िरोज़पुर जेल में रहे । फ़िरोज़पुर जेल में मित्रसेन भी थे । लुधियाना के प्रतिष्ठित उद्योगपति । पुलिस ने उन पर केस दर्ज किया था किसी की भैंस चुराने का । भैंस का पता लगाने के लिये पुलिस ने उनकी पैंट में चूहे छोड़ कर नीचे से पैंट को बाँध दिया था । हिमाचल में इससे भी ज़्यादा क्रूर व्यवहार भारतीय मज़दूर संघ के प्यारे लाल बेरी के साथ किया गया था । शान्ता कुमार , दौलतराम चौहान, कँवर दुर्गा चन्द , किशोरी लाल सब सलाखें में पहुँच गये थे ।

उधर फ़िरोज़पुर से जब पुलिस हमें पेशी के लिये जालन्धर लेकर आती थी तो एक बुज़ुर्ग सिपाही हमें समझाता रहता था कि इस उमर में हमें जेबकतरे का घटिया काम नहीं करना चाहिये , कोई और काम करना चाहिये । शायद पुलिस ने हम पर जेब कतरने का केस दर्ज किया होगा । हम उसको बहुत समझाते कि हम जेब क़तरे नहीं हैं बल्कि राजनैतिक क़ैदी हैं जो देश में लोकतंत्र की बहाली के लिये लड़ रहे हैं । लेकिन उसका मानना था कि सभी जेबकतरे ऐसी ही बातें करते हैं और मैं तो इस बिरादरी पर कभी विश्वास कर ही नहीं सकता । विश्वास न करने का कारण यह था कि जब वह अमृतसर में तैनात था और किसी जेब क़तरे को रंगे हाथों पकड़ लेता था तो थाने आकर वह जेबकतरे मिन्नतें करता था और पैर पकड़ता था और दूसरे दिन घंटाघर चौक में मिलने का वायदा करता था । दूसरे दिन यह सिपाही घंटाघर में उस जेबकतरे का लम्बा इन्तज़ार करता रहता लेकिन वह कम्बख़्त आता ही वहीं था । इसलिये इस सिपाही का जेबकतरों पर से विश्वास उठ गया था । मैंने सिपाही से पूछा कि आप जेबकतरे का घंटाघर पर इन्तज़ार करते क्यों थे ? दरअसल जेबकतरा  सिपाही को बताता था कि इस समय तो उसके पास पैसे नहीं है लेकिन कल वह इतने बजे घंटाघर पर उसे पैसे दे देगा । सौदा पट जाता था और सिपाही जेबकतरे को छोड़ कर दूसरे दिन पैसा लेने घंटाघर पहुँच जाता था । इस प्रकार वह कई जेबकतरों से धोखा खा चुका था और अब जेबकतरों की किसी भी बात पर विश्वास नहीं करता था । ठीक भी है । दूध का जला छाछ को भी फूँक फूँक कर पीता है । वह हमें बार बार यह तो कहता रहता था कि तुम मेरे बच्चों जैसे हो , इसलिये यह जेबकतरे का काम छोड़ दो । लेकिन इस बात पर विश्वास करने को तैयार नहीं था कि हम राजनैतिक क़ैदी हैं । इसलिये हमने भी बार बार उसका भाषण सुनने के स्थान पर उससे यह वायदा करना ही ठीक समझा कि हम आगे से जेब कतरने का काम नहीं करेंगे ।

जेल जीवन कैसा था , इसकी चर्चा का न समय है और न ही अख़बार में स्पेस है । लेकिन मुझे अभी भी याद है जब इन्दिरा गान्धी हारीं तो पंजाब विश्वविद्यालय के होस्टलों में सारी रात ढोल बजते रहे थे । उनकी आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूँज रही है ।